सोमवार, 5 दिसंबर 2016

गुर्जर तथा अरब महासंघर्ष (भाग 1) | Gurjar Vs Arab war (Part 1) History

गुर्जर तथा अरब महासंघर्ष (भाग 1) | Gurjar Vs Arab war (Part 1)

Gurjar Vs Arab War History | Part 1 | Arab Invasion in India | Battle of Rajasthan | Gujarat | Punjab | Kathiyavad | India | Arab War | Author : Malkiat Singh Jinderh



गुर्जर तथा अरब महासंघर्ष (भाग 1) | Gurjar Vs Arab war

कुछ लोग अरब ओर गुर्जरो के बीच हुए संघर्ष को Battle Of Rajasthan भी कहते हैं। लेकिन यह संघर्ष इक बड़े युद्ध का इक हिस्सा था जो राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, काठियावाड़ ओर पंजाब में भी लड़ा गया। इस संघर्ष को ठीक ढंग से समझने के लिए पहले हमें इसकी पृष्ठभूमि को समझना होगा।

पृष्ठभूमि (भाग 1) :-

712 AD में मोहम्मद बेन क़ासिम के सिंध पर हमले से पहले अरब दुनिया की इक बड़ी ताकत बन चुके थे। उत्तरी अफ्रीका के सभी देश, यूरोप में स्पेन तक, मध्य एशिया में त्रासोक्सीयाना तक ओर पूर्व में मकरान (बलूचिस्तान) खलीफा के झंडे के नीचे आ चुके थे। खलीफा की सत्ता फैलाने में मवालियों (Newly Convert Muslims) का भी अहम किरदार था जो ईरान ओर तुर्की आदि के गैर अरब लोग थे। इस प्रकार भारत पर अरब आक्रमण कोई छोटा-मोटा वाक्या नही था बल्कि उस वक़्त की सबसे महान विश्वशक्ति का आक्रमण था जिससे गुर्जरो को उलझना पड़ा। क़ासिम के वक़्त शक्ति से स्त्रोत मिश्र, इराक़, ईरान, तुर्की आदि विकसित सैनिक शक्तियों से प्रपौत थे जबकि गुर्जर उस वक़्त महज इक छोटे से इलाके में निहित कबीलाई संघ मात्र था।
बलूचिस्तान ओर सिंध का इलाक़ा ईरान की सस्सानि राजसत्ता के अधीन था ओर हूणों के साथ संघर्ष में कमजोर हो चुकी सस्सानि राजसत्ता इन इलाक़ो को ठीक ढंग से अपने अधिकार में ना रख सकी ओर यहां के मुकामी जागीरदार जिनको कस्बों ओर गांव का मुखिया बनाया गया था ओर जो अधिकतर ईरानी मूल के ही थे अमली तौर पर अपनी सत्ता स्थापित करली थी। इनको राई कहा जाता था। 416 AD में राइयों ने अपने इक प्रमुख राई देवा जी को अपना राजा घोषित कर दिया था। सस्सानि लगातार इस इलाके पर दोबारा अपनी सत्ता कायम करने के लिए कोशिश करते रहे। ऐसी ही इक कोशिश में राजा मेहरसेन II ईरान के निमरोज़ से आई इक सेना का मुक़ाबला करते हुए मारा गया। राई वंश का आखरी राजा राई सहसी II उसके इक ब्राह्मण मंत्री चच द्वारा रची इक साजिस में कत्ल कर दिया गया था। चच ओर राई सहसी की रानी सुहनदि में गुप्त ढंग से इश्क़बाजी चल रही थी। 

राई सहसी की हत्या के बाद चच ने सुहनदि से शादी रचाली ओर खुदको (632 AD) राजा घोसित कर दिया। गुस्सा खाकर चित्तोड़ का राजा महर्थ चच से अपने जीजा का राज बापिस लेने ओर अपनी बहन सुहनदि को सज़ा देने सिंध पर आक्रमण करने आया पर लड़ाई में मारा गया। चच के बाद उसका बेटा चंद्र राजा बना ओर उसके बाद चंद्र का बेटा दाहिर राजा बना।
642 AD में नेहवंद की जंग में अरब सेना ने सस्सानि राजा Yazirgerd III को मुकम्मल रूप में हरा दिया ओर Yazid मेर्व में अपने इक गवर्नर Muhayeh के पास भाग गया। Muhayeh ने Yazid के रोज़ाना महंगी मांगो से तंग आकर उसके खिलाफ विद्रोह कर दिया ओर बडगीस के नेज़ाकि हूणों की मदद से yazid को हरा दिया। Yazid ने भागकर इन चक्की वाले (Miller) की चक्की में पनाह ली पर चक्की वाले ने Yazid की दौलत के लालच में Yazid की हत्या करदि ओर इस तरह ईरान में अरबों की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई नही बचा।
भारत प्रवेश करने के लिए अरबों को अफ़ग़ानिस्तान से होकर गुजरना था जो उस वक़्त सभ्यता के हिसाब से भारत का ही अंग माना जाता था ओर अरबों के 'अल हिन्द' संकल्पना के अंतर्गत ही आता था। इसके साथ ही मकरान पर कब्जा निश्चित करने के लिए साथ लगते ज़ाबुलिस्तान ओर ज़मिनद्वार (Helmand) पर भी कब्जा करना जरूरी था। ज़ाबुलिस्तान ओर ज़मीनद्वार पर उस वक़्त ज़ुनबिल हेप्थालो (हूण) का राज था जो भारतीय गुर्जरो के ही भाई बंध थे ओर ज़ाबुलिस्तान में ही पीछे रह रहे थे। यह लोग सूर्य उपासक थे जिसे वो जून कहते थे। जून यानी सूरज का इक बड़ा मंदिर साकावंद (ज़ाबुलिस्तान में) था जहां साल दर साल मेला लगता था ओर जो हेप्थाल इस मेले के दिन सूर्य पूजा करने सकवंद के मंदिर जाते थे उनको ज़ुनबिल कहा जाता था। अरब लोग इनको ज़िब्लिस कहते थे। ज़ाबुलिस्तान पर कब्जा करने की गर्ज से सुहैल बिन अब्दी के अधीन अरब सेना ने 643 AD में ज़ुनबिलों पर हमला किया। ज़ुनबिलो को पहली बार अरब सेना की ताकत का अंदाज़ा हुआ ओर इस जंग में उनको पीछे हटना पड़ा लेकिन आगे के लिए वो चौकन्ने हो गए। अगले ही साल 644 AD में खलीफा राशिदुन के इशारे पर अरब सेना ने मकरान के तटवर्ति इलाके पर आक्रमण किया ओर रासिल के स्थान पर भारतीय सेना को पराजित किया। मकरान पर अब भारतीयों का कोई दावा नही रह गया था। 652 AD में अहनाफ इब्न कैस ने हेरात पर हमला करके वहां हारा हूणों को पराजित कर दिया। यह हमला ज़ुनबिलों को उत्तर पश्चिम की तरफ से घेरने के लिए किया गया था।
661 AD में अरब जनरलों सिनन इब्न सलमा ने मकरान के चगाई इलाके को अपने अधीन किया। 672 AD में अरब जनरल राशिद इब्न अम्र ने मशकेय ओर 681 AD में मुंजिर इब्न जरूद अल अबादि ने किक्कान, बुकान को अधीन करके लगभग 673 AD तक मकरान सिंध पर हमला करने के लिए आधार शिविर बन चुके थे, सिर्फ ज़ुनबिलो से निपटना बाकी था।
ज़ाबुलिस्तान पर अधिकार करने के लिए अरब सेना ने 668, 672 ओर 673 AD में तीन बार कोशिश की लेकिन ज़ुनबिल मजबूती से उनका सामना करते रहे ओर तीनो बात अरब सेना को अपना हर्जा खर्चा लेकर पीछे हटना पड़ा। कुफा ओर बसरा का गवर्नर अल हज्जाज इब्न यूसफ अल हकम इब्न अकील अल तकाफि (अल हज्जाज) ज़बुलिस्तान पर अधिकार करने के लिए बहुत तत्पर था। 681 AD में उसने यज़ीद बिन सलाम के अधीन सेना भेजी पर जंजाह के स्थान पर ज़ुनबिल हूणों ने इस सेना को ना सिर्फ हरा दिया बल्कि ऐसा घेरा की अरबों को ज़ुनबिलो को 5 लाख दिरहम देकर अपने फौजियों की जान माल की हिफाज़त करनी पडी। ज़ुनबिलो ने 685 में सिस्तान पर धावा बोल दिया पर कामयाब नही हुए। अरब सेना ने इक बार फिर 693 में ज़बुलिस्तान पर हमला किया लेकिन इस बार फिर हरा दी गई।
ज़ुनबिलों ने दर्रा बोलान से होकर मकरान में अरब ठिकानों पर धावे बोलने शुरू किये तो खतरे को भांप कर अल हज्जाज ने उबैदुल्ला इब्न बकरा नामी सिपाहसालार को 698 AD में 20 हजार की फौज देकर ज़ुनबिलो पर हमला करने भेजा। यह सारी फौज कुफा ओर बसरा से भेजी गयी थी क्यूंकि इस फौज की बहादुरी के डंके दूर-दूर तक बजते थे। उधर ज़ुनबिल पीछे हटकर काबुल शाही (जो हेप्थाल ही थे, इनको तुर्की शाही भी कहा गया है) फौज से मिल गयी ओर उबैदुल्लाह की फौज को आगे बढ़ने दिया। जैसे ही अरब सेना काबुल के पास पहुंची तो ज़ुनबिल ओर काबुलशाही फौज ने ऐसा हमला किया की कुफा ओर बसरा की फौज के 20 हजार में से 15 हजार फौजी मौत के घाट उतार दिये गए। इस्लामी लश्कर की यह शिकस्त खलीफा ओर गवर्नर अल हज्जाज के लिए नागवार थी। अल हज्जाज के लिए नागवार इसलिए भी थी की अभी अभी ही उसको सिस्तान ओर ख्बारीजम का गवर्नर भी बना दिया गया था ओर यह हर उसके रुतबे ओर चोट थी। अगली ही बार 700 AD में अब्दुर रहमान इब्न मोहम्मद अल असथ को फिर से कुफा ओर बसरा से 20 हजार की फौज देकर ज़ुनबिलो के खिलाफ भेजा। इस बार फौजियों को असथ ने अपनी मर्जी से चुना था। अल असथ ज़ुनबिलों को हर हालात में हरा देने मि डींगे हांक कर आया था। बिलाशक वो इक काबिल जनरल था। ज़बुलिस्तान आकर उसने कुछ कामयाबियां हासिल कीं, पर ज़ुनबिलो को जीतना इतना आसान ना देखकर उसने आस पास के इलाक़ो में अपनी किलेबंदी शुरू की ओर गर्मी का मौसम आने का इन्तेजार करने लगा। इस देरी से अल हज्जाज परेशान हो गया ओर उसने रुकके में अल असथ ओर दूसरे सिपाहसालारों को बहुत बुरा भला कहा ओर उनकी शान के खिलाफ शब्द इस्तेमाल किये। अल असथ इराक़ के मक़बूल खानदान असथ का सदस्य था जो इक गरीब पठार त्रश ओर रुतबे में छोटे खानदान से गवर्नर के ओहदे पर पहुंचे अल हज्जाज से अपनी तोहीन बर्दास्त ना कर सका ओर उसने विद्रोह कर दिया ओर पहले मकरान को अपने अधीन लिया फिर अपने लश्कर के साथ बसरा रवाना हुआ जहां उसने अल हज्जाज की सेना को हराकर बसरा पर कब्जा किया ओर कुफा की तरफ बढ़ने लगा। ज़ुनबिलों ने अल असथ की मदद की ओर सिस्तन पर अपना दावा जताया। खलीफा असथ से नाराज था क्योंकि उसने सरकारी  अधिकारो के खिलाफ गद्दारी की थी, खलीफा की मदद से अल हज्जाज ने सीरिया से सेना बुलाई ओर कुफा की जंग में 704 AD में असथ को हरा दिया।असथ सिस्तन की तरफ भागा ओर ज़ुनबिलो से पनाह मांगी। अल हज्जाज पहले ही ज़ुनबिलो से 7 साल तक की जंगबन्दी का समझोता कर चुका था, ज़ुनबिलो ने असथ का क़तल कर दिया। (कुछ इतिहासकार बताते है की असथ ने खुदखुशी करली थी)। इस प्रकार कुछ देर तक भारत के दरवाजों पर अरब आक्रमण रुक गया था। ज़ुनबिलों ओर काबुल शाही हप्थालो की शक्ति के कारण अरब सेना भारतीय प्रवेश द्वार दर्रा खैबर, दर्रा बोलान ओर दर्रा गोमल तक नही पहुँच पा रही थी, उनके पास बलूचिस्तान, सिंध ओर राजस्थान के मुरुथल ओर दुर्गम इलाके से ही भारत प्रवेश का रह गया था। मुहम्मद बिन क़ासिम के बाद भी ज़ुनबिलो ने 728, 769 ओर 785 में अरब सेना के हमलों को कामयाब नही होने दिया बल्कि 728 के हमले में अरब सेना इक बार फिरसे बुरी तरह हार गई थी। ज़ुनबिल हूणों को 865 AD में सफरीद जनरल याक़ूब ने काबू किया तब तक ज़ुनबिलों के चारो तरफ अरब अपनी धाक जमा चुके थे ओर ज़ुनबिल अकेले ही चारो तरफ से घिरे हुए थे। ज़ुनबिलो को बड़ा धक्का उस वक़्त लगा था जब उनके अपने भाई बंध हप्थाल नेज़ाकि हूण अरब सेना की सहायता करने की अपनी गलत नीतियों के कारण अरबों के आगे धरा शाही हो गए थे। नेज़ाकि हूण (जिनका नाम उनके इक राजा नेज़ाक के नाम पर पड़ा) उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान क्व बदगीस में हुकूमत कर रहे थे। ज़ुनबिलो की तरह नेज़ाकि हूण भी काबू नही आ रहे थे। आखिर कुतैबा ने नेज़ाकियों से समझोता कर लिया ओर नेज़ाकि अरब सेना की ट्रांसोक्सीयाना में हुई लड़ाइयों में उनसे कंधे से कंधे मिलाकर  लड़ने लगे हालांकि वो खुद मुस्लिम नही हुए थे। आखिर जब ट्रांसोक्सीयाना में अरब नेज़ाकियों की मदद से जीत कर बहुत मजबूत हो गए तो उन्होंने दूसरी कोमों की मदद से नेज़ाकियों को शिकस्त दे दि ओर एक जंग में नेज़ाकि राजा मारा गया।

जब अरब सेना ज़ुनबिलो से निपटने में लगी हुई थी तो अरब सागर में सेरान्द्वीप (श्रीलंका) से ईरान की खाड़ी तक अरब के व्यापारिक समुंद्री जहाँजो को लुटे जाने की खबरें खलीफा के पास आ रही थीं। अरबों के जहाँजो को लूटने वाले मेड़ जाती के लोग थे जो देवल, कच्छ और काठियावाड़ के अपने तीन केंद्रों से इन कार्यवाहियों को अंजाम दे रहे थे। चचनामा में देवल के मेड़ों को नागमराह कहा गया। विंक (Al Hind - The Making Of Indo Islamic World) ने लिखा है की मेड़ लोग साक (सीथियन) जाती के लोग थे जो अरबों के जहांजो को लूटने से पहले सस्सानियों के जहाँजों को लूटा करते थे। और यह लूटमार सेरेंद्वीप से लेकर इराक में दरिया दजला (टाइग्रिस) के डेलटे तक कहीं भी हो सकती थी उस वक़्त अरब मेड़ों को अपना सहयोगी मानते थे क्यूंकि वो भी उस वक़्त सस्सानियों से ईरान छीन लेने की कोशिश में लगे हुए थे। बात तब ज्यादा बढ़ गयी जब सेरेंद्वीप के राजा की तरफ से खलीफा अल वालिद के लिए कीमती उपहार लेकर जा रहा इक अरब जहाज नागमराह लोगों ने लूट लिया। इस जहाज में सेरेंद्वीप के कुछ नए बने मुसलमान अपनी बीवियों के साथ मक्का और मदीना की जियारत के लिए भी जा रहे थे जिनको बंधक बना लिया गया था। जहाज को बचाने के लिए कई अबेसीनियन (Modern Ethopia & Eriteria) हब्शी गुलाम मारे गए थे। जहाज को देवल की बंदरगाह पर लाया गया और बंधकों को राजा दाहिर की तरफ से देवल के गवर्नर प्रताप राई ने अपनी हिरासत में ले लिया। बंधकों की अदला बदली के दौरान ईक सेरेंद्वीपी औरत बच कर किसी तरह मकरान में अरब सेना के इक बेस पर पहुँच गयी और वहां से इक क़ासिद के हाथ खलीफा को ख़त लिखा जिसमें उसने बंधकों की रिहाई और जहांजो की हिफाज़त की विनती की (The Ummayyad Khaliphate By Alaxander Berzin)। खलीफा ने अल हज्जाज को कार्यवाही करने के लिए कहा। अल हज्जाज ज़ुनबिलों से निपटे बिना सिंध पर कोई फौजी अभियान भेजना नहीं चाहता था। उसने दाहिर के पास दूत भेजकर मांग की क़ि बंधकों को रिहा किया जाये। लूटेरों को सजा दी जाये और नुकसान का मुआवजा दिया जाए। दाहिर ने यह कहकर वापिस भेज दिया की लूटेरे उसकी रियाया नहीं हें ओर उनपर उसका कोई जोर नहीं है। हज्जाज जनता था की बंधक प्रताप राई के पास हैं और ये दाहिर का ही गवर्नर नियुक्त किया गया है। हज्जाज ने बहाना बनाया की अगर लुटेरे दाहिर के राज के अधीन नहीं हैं तो वो खुद उनको सजा देगा। पहले उबैदुल्लाह के नेतृत्व में और फिर बुड़ैल के अधीन जंगी बेड़ा (Naval Fleet) देवल पर हमला करने भेजा गया पर प्रताप राई ने मेडों की सहायता से दोनों बार अरबों को देवल के तट पर हरा दिया और दोनों ही बार अरब कमांडर मारे गए। अल हज्जाज ने ज़मीन के रास्ते सिंध पर हमला करने का मन बना लिया। वैसे भी उसका अफ़ग़ानिस्तान में पैर मजबूत करने के बाद भारत प्रवेश करने का इरादा था पर अब यह पहल की बात हो गई थी।
इमाम अद् दिन मुहम्मद इब्न क़ासिम अथ तक़ाफ़ि का जन्म 672 AD को अल हज्जाज के भाई क़ासिम बेन यूसफ के घर तैफ (अब सऊदी अरब में) हुआ था। अल हज्जाज ने अपनी बेटी ज़ुबैदा की शादी उसी से की थी, यानि वो अल हज्जाज का भतीजा था और दामाद भी। उसकी फौजी ट्रेनिंग अल हज्जाज के लश्कर में ही हुई थी। अल हज्जाज ने सिंध को फतह करने का काम उसी को सौंपा। क़ासिम उस वक़्त 17 साल की उम्र का था जब वो ईरान में शिराज के उस अरब लश्कर का 710 AD में कमाण्डर जिसे सिंध की तरफ रवाना होना था। (Al Hajjaj To Qasim By Deroyl)

जब मुहम्मद बेन क़ासिम शिराज से मकरान के लिए रवाना हुआ तो उसकी फौज में 6 हजार सीरियन घुड़सवार थे। ईरान के मवालियों की ओर अबीसीनियन और सूडान के हब्शियों की पूरी पलटनें भी उसके साथ थीं। मकरान में दाखिल होते ही मकरान के गवर्नर ने 6 हजार रुखसवार (Camel Core) उसके साथ करदी और देवल को समुन्द्र की तरफ से घेरने के लिए इक जंगी बेड़ा भी रवाना कर दिया इस जंगी बेडे के पास 6 हजार गुलेलें भी थीं जो भारी भरकम पत्थरों को फेंक सकती थी। स्पष्ट था की जमीनी ओर समुन्द्री दोनों रास्तों से देवल पर हमला होगा। मकरान (बलूचिस्तान) में क़ासिम ने फंनज़्बुर ओर अरमान बेला (लास बेला) अरब सिपहसालारों को शक्ति से युद्ध में अरब सेना का साथ देने के लिए मजबूर किया क्यूंकि यह दोनों मकरान के गवर्नर से नाराज चल रहे थे ओर मनमर्जीयाँ कर रहे थे। 712 AD में क़ासिम ने अपनी सेना के साथ मकरान से सिंध में प्रवेश किया। उसके सिंध में दाखिल होते ही देवल की बंदरगाह को घेर कर खड़े हुए जंगी बेडे ने गुलेलें धरती पर उतार दी ओर उनको पानी के पास जंगी जहाँजों की सरपरस्ती में ऐसी जगह पर लगाया जहाँ उन पर जबाबी हमला मुमकिन नहीं था। गुलेलों से भारी भरकम पत्थर शहर पर फैंके गए। कुछ ही दिनों में देवल शहर बर्बाद कर दिया गया। शहर की आबादी शहर छोड़ कर भाग गई। प्रताप राई शहर की हिफाज़त करना मुश्किल में पाकर अपनी सेना के साथ दाहिर की राजधानी अलोर (अरोर) की तरफ कूच कर गया। बेड़े से उतरकर अरब सेना देवल में दाखिल हो गई। सबसे पहले देवल के भव्य मंदिर को जमीन पर गिरा दिया गया जो शहर की गतिविधियों का मुख्या केंद्र था। आस पास के मेड़ और दूसरे जाट जो अरब जहाँजो की लूट-पाट में शामिल थे सज़ा से बचने के लिए कच्छ की तरफ भागने शुरू हो गए। क़ासिम के देवल पहुँचने से पहले ही देवल फतह कर लिया गया था। देवल से क़ासिम उत्तर में नारून और सदुसन (सहवान) की तरफ चल दिया। यह जाटों का इलाक़ा था। यहाँ क़ासिम का कोई विरोध नहीं हुआ। देवल सिंध नदी के पूर्वी किनारे पर था जबकि नारून पश्चिमी किनारे पर। (10वीं सदी ईस्वीं में इक जबर्दस्त भूचाल के कारण सिंध नदी द्वारा रास्ता बदल लिया जाने पर नरून आज तक नदी के पूर्वी किनारे पर है) नारून को आधार बनाकर अरब सेना ने काका, कोलक, बाझरा, ओर सिबिस्तन को अपने अधीन किया। सिबिस्तन के सिबिया गोत के जाट अरबों के समर्थक बन गए। राजा दाहिर अलोर के पास रोहड़ी नाम की जगह (सिंध नदी के पूर्वी तट पर) पर अरब सेना का मुक़ाबला करने के लिए मोर्चाबंदी किए हुए खड़ा था। नदी के इस पार या उस पार जाने के लिए नदी के बीचों बीच बेट नाम के इक जज़ीरे पर अधिकार करना जरूरी था। बेत पर मोरेया बसाया नाम के इक जाट शासक का अधिकार था जिसने सहज ही क़ासिम से समझोता कर लिया ओर नदी पार करने के हित अरब सेना को बेत का इस्तेमाल करने का ना सिर्फ अधिकार दे दिया बल्कि अपने अधीन जाटों को दाहिर के खिलाफ लड़ने के लिए अरब सेना के साथ भी कर दिया (Wink; Al Hind)। जाटों और मल्लाहों की सहायता से क़ासिम की पूरी फौज ने नदी पार की और रोहड़ी पहुँच गया। क़ासिम की सेना के नदी पार करने की खबर सुनते ही अलोर के इलाके के गुर्जरो और मेड़ो ने उत्पाद मचा दिया। इनकी लूट मार की वजह से रास्ते बंद हो गए और इस अराजकता का नुकसान अरबों से ज्यादा दाहिर को ही हो रहा था। जाट दो गुटों में बँट गए थे। नदी के पश्चिम की तरफ के जाट क़ासिम के साथ थे जबकि पूर्व की तरफ के जाट दाहिर के साथ मैदानी जंग में डटे हुए थे। भट्टा (जैसलमेर और बीकानेर का इलाक़ा) राजा दाहिर से अपना पुराना बदला लेने के लिए सेना समेत क़ासिम की सहायता कर रहा था। दाहिर की बहन की शादी भट्टा के राजा से तय की गई थी। शादी के वक़्त जब दाहिर ने देखा की इतना इलाक़ा भट्टा के राजा को दहेज़ में देना पड़ेगा जिससे उसका इलाक़ा दाहिर के अधीन इलाके से भी बड़ा हो जायगा तो ऐन मौके पर उसने अपनी बहन का डोला रोक दिया और अपनी बहन से खुद शादी करली (चचनामा)। इससे भट्टा का राजा बहुत नाराज था। अरब सेना के पास दुनिया में सबसे बढ़िया नस्ल के अरबी घोड़े थे जबकि दाहिर की सेना मुख्या तौर पर हाथियों पर आधारित थी। भारत में अरबी नस्ल के घोड़ो से कुछ ही कम बढ़िया नस्ल के तुर्की घोड़े सिर्फ गुर्जरों के पास थे। अरबों के तीरंदाजों के पास मंगोली कमानें थी जो तेज रफ़्तार से दूर तक बाण फेंक सकती थी। ऐसे तीर कमान भारत में सिर्फ गुर्जरों के पास थे और किसीके पास नही थे। दाहिर और भीनमाल के गुर्जरो में आपसी ऐसा कोई तालमेल नहीं था जिससे दाहिर फायदा उठा सकता हालांकि दोनों राज्यो की सरहदें आपस में टकराती थीं। गुलेलें भारत में पहली दफा अरब लेकर आये थे, भारतियों के किसी भी राज्य के पास यह नही थी। उस वक़्त दुनिया पर अरबों की जीत की इक धारणा बनी हुई थी ओर लोगों को यकीन था की अरब ही जीत प्राप्त करेंगे जिससे युद्ध के वक़्त अरबों के विरोधी राज्यो के राज्याधिकारी और व्यापारी वर्ग गुप्त तौर पर अरबों से सांठ गाँठ करते थे और आम जनता अरबों के जीत जाने की हालात में आने वाली किसी विप्ता के डर से अपने शासकों के प्रति उदासीन हो जाती थीं।

बाकी अगले भाग में पृष्ठभूमि (भाग 2) मे ..........



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रविवार, 20 नवंबर 2016

Gurjar Pratihar Vs Arab, Rashtrakuta, Pala Empire & Battle of Rajasthan

Gurjar Pratihar Vs Arab, Rashtrakuta, & Pala Empire



Gurjar Pratihar Dynasty's Geographical Map

गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य ने अपने शुरूआती शासनकाल मे ही पूरी दूनिया को अपनी ताकत से हिला दिया था।इनका शासनकाल 6ठी शताब्दी से 10वी शताब्दी तक रहा। गुर्जर प्रतिहारोने अरबों से 300 वर्ष तक लगभग 200 से ज्यादा युद्ध किये और हर बार विजयी हुए। जिसका परिणाम है कि हम आज यहां सुरक्षित है।
अरबो की विशाल आँधी के सामने वीर गुर्जर अपने रणनृत्य का प्रदर्शन करते हुए भिडे जिसे इतिहास राजस्थान के युद्ध /Battle of Rajasthan जोकि गुर्जरो व अरबो के बीच हुए के नाम से जानता है।भारत मे कोई ऐसा स्थान नही बचा जहां गुर्जर प्रतिहारो ने अपनी तलवार और निर्माण कला का जौहर ना दिखाया हो। गुर्जर प्रतिहारो ने सैकडो सालो तक राष्ट्रकूट और पाला साम्राज्य से भयंकर युध्द किए और हर बार विजयी हुए। गुर्जर प्रतिहारो के दुश्मन चारो ओर थे । एक तरफ हिमालय की और से । दक्षिण मे राष्ट्रकुटो से। पूरब मे बंगाल के पालो से और पश्चिम से अरबो, डकैतों, इराकी,मंगोलो , तुर्कों,से। जिसमें गुर्जरो ने अभूतपूर्व साहस व पराक्रम दिखाते हुए अरबो को बाहर खदेडा ।भारत की हजारो साल से बनने वाली सभ्यता व संस्कृति को अरबो द्वारा होने वाली हानि से गुर्जरो ने बचाया व लगभग साढे तीन सौ सालो तर गुर्जर भारत के रक्षक/प्रतिहार बने रहे । प्रतिहार यानी द्वारपाल।देश के रक्षक। 350 सालो तक लगातार युद्धे के बाद जब, अरब, राष्ट्रकुट और पाल साम्राज्य ने एक साथ मिलकर युद्ध कए वही से गुर्जर प्रतिहारो का पतन होने लगा और विदेशी ताकतो को भारत देश मे घुश्ने का अवसर मिला। इसके बाद के काल को ही मुगल काल कहा जाता है
भारत देश हमेशा ही गुर्जर प्रतिहारो का रिणी रहेगा उनके अदभुत शौर्य और पराक्रम का जो उनहोंने अपनी मातृभूमि के लिए न्यौछावर किया है। जिसे सभी विद्वानों ने भी माना है और देश की स्वतंत्रता पर आँच नहीं आई।यहां अनेको गुर्जर राजवंशो ने समयानुसार शासन किया और अपने वीरता, शौर्य , कला का प्रदर्शन कर सभी को आश्चर्य चकित किया। भारत मे कोई ऐसा स्थान नही बचा जहां गुर्जर प्रतिहारो ने अपनी तलवार और निर्माण कला का जौहर ना दिखाया हो। गुर्जर प्रतिहारो ने 100 सालो तक राष्ट्रकूट और पाला साम्राज्य से भयंकर युध्द किए और हर बार विजयी हुए। गुर्जर प्रतिहारो के दुश्मन चारो ओर थे । एक तरफ हिमालय की और से । दक्षिण मे राष्ट्रकुटो से। पश्चिम मे बंगाल के पालो से और विदेशी ताकते गुर्जर प्रतिहारो ने सैकडो मंदिर व किले के निर्माण किए था जिसमे शास्त्रबहु मंदिर, बटेश्वर मंदिर, कुचामल किला, मिहिर किला (गुर्जर किला), पडावली मंदिर, गुर्जर बावडी, चौसठ योगिनी मंदिर आदि इनके अलावा सैकडो इलाके व ठिकाने है जहाँ गुर्जर प्रतिहारो ने अपनी कला बनाई ।

Gurjar Kings of Gurjar Pratihar Empire Wallpaper image


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सोमवार, 1 अगस्त 2016

गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण | Gurjar Samrat Mihirkul hoon - The Great Emperor of Indian History

गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण  - गुर्जर हूण साम्राज्य के सबसे प्रतापी सम्राट

Gurjar Samrat | Gurjar Hoon Empire | Mihirkul Hoon | Gujjar | Medieval History of India | Huna | Hun | Torman | Shiv Worshiper 


Great Shiv Worshiper - Gurjar Samrat Mihirkul Hoon


मध्य में, ४५० इसवी के लगभग, हूण गांधार इलाके के शासक थे, जब उन्होंने वहा से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया| कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए| ४९५ इसवी के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तो से पूर्वी मालवा छीन लिया| एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं| जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी|

तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था| उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया|मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था| उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं|

कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने “क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी” नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं|मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ “सी-यू-की” में लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था | वह कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था|

हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में “राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ७०० ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|


मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं |

हर हर महादेव का जय घोष भी हूणों से जुडा प्रतीत होता है क्योकि हूणों कि दक्षिणी शाखा को हारा-हूण कहते थे, संभवत हारा-हूण से ही हारा/हाडा गोत्र कि उत्पत्ति हुई हैं| हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|

इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं|

== Part - 2 ==

स्कंदगुप्त के काल में ही हूणों ने कंबोज और गांधार अर्थात बौद्धों के गढ़ संपूर्ण अफगानिस्तान पर अधिकार करके फिर से हिन्दू राज्य को स्थापित कर दिया था। लगभग 450 ईस्वीं में उन्होंने सिन्धु घाटी क्षेत्र को जीत लिया। कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड़ और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए। 495 ईस्वीं के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तों से पूर्वी मालवा छीन लिया। एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती है। जैन ग्रंथ 'कुवयमाल' के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था।

इतिहासकारों के अनुसार पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना। (मिहिरकुल भारत में एक ऐतिहासिक श्वेत हुण शासक था। ये तोरामन का पुत्र था। तोरामन भारत में हुण शासन खा संस्थापक था। मिहिरकुल 510 ई। में गद्दी पर बैठा। संस्कृत में मिहिरकुल का अर्थ है - 'सूर्य के वंश से', अर्थात सूर्यवंशी।मिहिरकुल का प्रबल विरोधी नायक था यशोधर्मन। कुछ काल के लिए अर्थात् 510 ई। में एरण (तत्कालीन मालवा की एक प्रधान नगरी) के युद्ध के बाद से लेकर लगभग 527 ई। तक, जब उसने मिहिरकुल को गंगा के कछार में भटका कर क़ैद कर लिया था, उसे तोरमाण के बेटे मिहिरकुल को अपना अधिपति मानना पड़ा था। क़ैद करके भी अपनी माँ के कहने पर उसने हूण-सम्राट को छोड़ दिया था।).......... मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों में हमेशा उसके साथ रहता था। उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और बौद्ध धर्मावलंबी गुप्तों से भी कर वसूल करना शुरू कर दिया। तोरमाण के बाद मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। मिहिरकुल हूण एक कट्टर शैव था। उसने अपने शासनकाल में हजारों शिव मंदिर बनवाए और बौद्धों के शासन को उखाड़ फेंका। उसने संपूर्ण भारतवर्ष में अपने विजय अभियान चलाए और वह बौद्ध, जैन और शाक्यों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था, वहीं विक्रमादित्य और अशोक के बाद मिहिरकुल ही ऐसा शासन था जिसके अधीन संपूर्ण अखंड भारत आ गया था। उसने ढूंढ-ढूंढकर शाक्य मुनियों को भारत से बाहर खदेड़ दिया।

मिहिरकुल इतना कट्टर था कि जिसके बारे में बौद्ध और जैन धर्मग्रंथों में विस्तार से जिक्र मिलता है। वह भगवान शिव के अलावा किसी के सामने अपना सिर नहीं झुकाता था। यहां तक कि कोई हिन्दू संत उसके विचारों के विपरीत चलता तो उसका भी अंजाम वही होता, जो शाक्य मुनियों का हुआ। मिहिरकुल के सिक्कों पर 'जयतु वृष' लिखा है जिसका अर्थ है- जय नंदी। इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी। उसने 'क्रिश्चियन टोपोग्राफी' नामक अपने ग्रंथ में लिखा है कि हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम 2 हजार हाथियों के साथ चलता है, वह भारत का स्वामी है।

मिहिरकुल के लगभग 100 वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री ह्वेनसांग 629 ईस्वी में भारत आया, वह अपने ग्रंथ सी-यू-की में लिखता है कि कई वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था, जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था। ह्वेनसांग बताता है कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुंचाया। ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल ने भारत से बौद्धों का नामो-निशान मिटा दिया। क्यों? इसके पीछे भी एक कहानी है। वह यह कि बौद्धों के प्रमुख ने मिहिरकुल का घोर अपमान किया था। उसकी क्रूरता के कारण ही जैन और बौद्ध ग्रंथों में उसे कलिराज कहा गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि राजा बालादित्य ने तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल को कैद कर लिया था, पर बाद में उसे छोड़ दिया था। यह बालादित्य के लिए नुकसानदायक सिद्ध हुआ।

मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे। उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया। कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेश्वर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था। उसने फिर से भारत में सनातन हिन्दू धर्म की स्थापना की थी। यदि शंकराचार्य, गुरुगोरक्षनाथ और मिहिरकुल नहीं होते तो भारत का प्रमुख धर्म बौद्ध ही होता और हिन्दुओं की हालत आज के बौद्धों जैसी होती। सवाल यह उठता है कि लेकिन क्या यह सही हुआ? ऐसा नहीं हुआ होता यदि बौद्ध भिक्षु देश गद्दारी नहीं करते। उस दौर में मिहिरकुल को कल्कि का अवतार ही मान लिया गया था, क्योंकि पुराणों में लिखा था कि कल्कि आएंगे और फिर से सनातन धर्म की स्थापना करेंगे। मिहिरकुल ने यही तो किया?

जैन व बौद्ध ग्रंथो ने मिहिरको कल्की अवतार माना है कल्की अवतार के बारे मै लिखा है वो तलवार ले कर बौद्ध जैन मलेच्छ को खत्म करेगे लेकिन मलेच्छ तो उस समय थे नही लेकिन मिहिर ने बौद्ध जैन को खत्म कर के कल्की अवतार  काम जरुर किया था

शुंग वंश के पतन के बाद सनातन हिन्दू धर्म की एकता को फिर से एकजुट करने का श्रेय गुप्त वंश के लोगों को जाता है। गुप्त वंश की स्थापना 320 ई। लगभग चंद्रगुप्त प्रथम ने की थी और 510 ई। तक यह वंश शासन में रहा। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए। नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई।) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे। बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। आरंभ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन कर लिया था। इसके बाद दक्षिण में कांजीवरम के राजा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया था। गुप्त वंश के सम्राटों में क्रमश: श्रीगुप्त, घटोत्कच, चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेंद्रादित्य) और स्कंदगुप्त हुए। स्कंदगुप्त के समय हूणों ने कंबोज और गांधार (उत्तर अफगानिस्तान) पर आक्रमण किया था। हूणों ने अंतत: भारत में प्रवेश करना शुरू किया। हूणों का मुकाबला कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा करना स्कन्दगुप्त के राज्यकाल की सबसे बड़ी घटना थी। स्कंदगुप्त और हूणों की सेना में बड़ा भयंकर मुकाबला हुआ और गुप्त सेना विजयी हुई। हूण कभी गांधार से आगे नहीं बढ़ पाए, जबकि हूण और शाक्य जाति के लोग उस समय भारत के भिन्न- भिन्न इलाकों में रहते थे। स्कंदगुप्त के बाद उत्तराधिकारी उसका भाई पुरुगुप्त (468-473 ई।) हुआ। उसके बाद उसका पुत्र नरसिंहगुप्त पाटलीपुत्र की गद्दी पर बैठा जिसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर राज्य में फिर से बौद्ध धर्म की पताका फहरा दी थी। उसके पश्चात क्रमश: कुमारगुप्त द्वितीय तथा विष्णुगुप्त ने बहुत थोडे़ समय तक शासन किया। 477 ई। में बुद्धगुप्त, जो शायद पुरुगुप्त का दूसरा पुत्र था, गुप्त-साम्राज्य का अधिकारी हुआ। ये सभी बौद्ध हुए। इनके काल में बौद्ध धर्म को खूब फलने और फूलने का मौका मिला। बुद्धगुप्त का राज्य अधिकार पूर्व में बंगाल से पश्चिम में मालवा तक के विशाल भू-भाग पर था। यह संपूर्ण क्षेत्र में बौद्धमय हो चला था। यहां शाक्यों की अधिकता थी। सनातन धर्म का लोप हो चुका था। जैन और बौद्ध धर्म ही शासन के धर्म हुआ करते थे।

== Part - 3 ===

 कल्कि पुराण में लिखा भी हैं कि कल्कि आएंगे और अनिश्वरवादी धर्मों (जैन और बौद्ध) का नाश कर देंगे। क्या मिहिरकुल ने ऐसा नहीं किया था?कश्मीरी ब्राह्मण विद्वान कल्हण के अनुसार मिहिरकुल वैदिक धर्म का अनुयायीथा। वह अनीश्वरवादियों के विरुद्ध लड़ाई लड़ता था। कल्हण ने 'राजतरंगिणी' नामक ग्रंथ में मिहिरकुल का वर्णन शिवभक्त के रूप में किया है। कल्हण कहताहै कि मिहिरकुल ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया।हूणों के शासन से पहले कश्मीर ही नहीं, वरन पूरे भारत में बौद्ध धर्म प्रबल था।भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और सनातन धर्म के संरक्षण एवं विकास में मिहिरकुल हूण की एक प्रमुख भूमिका है। मिहिरकुल का शासन ईरान से लेकर बर्मा औरकश्मीर से लेकर श्रीलंका तक था।कुछ विद्वानों के अनुसार मिहिरकुल को कल्कि मानना इसलिए ठीक नहीं होगा, क्योंकिहूण तो विदेशी आक्रांता थे। उनको तो इतिहास में विधर्मी माना गया है। 'विधर्मी' का अर्थ होता है ऐसे व्यक्ति जिसने या जिसके पूर्वजों ने हिन्दू धर्म को त्यागकर दूसरों का धर्म अपना लिया हो।लेकिन ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हूणविदेशी नहीं थे। उन्हें प्राचीनकाल मेंयक्ष कहा जाता था। वे सभी धनाढ्य लोग थे। हूण, कुषाण और शक सभी मूलत: भारतीय ही थे। ये सभी भारत से निकलकर बाहर गए औरफिर पुन: भारत में आकर राज करने लगे।इतिहासकारों के अनुसार वराह हूण और कुषाण लगभग 360 ई. में भारत के पश्चिमोत्तर में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनकर उभरे थे। उन्होंने पंजाब से मालवा तक अपना शासन स्थापित कर लिया था।श्वेत हूण भी 5वीं शताब्दी में पश्चिमोत्तर भारत के शासक थे। 500 ई. लगभग जब तोरमाण ओर मिहिरकुल के नेतृत्व में जब हूणों ने मध्यभारत में साम्राज्य स्थापित किया, तब वे वैदिक धर्म और संस्कृति का एक हिस्सा थे, जबकि गुप्त सम्राट बालादित्य बौद्ध धर्म का अनुयायी था। इससे पहले मौर्य वंश भी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे अतः हूणों और गुप्तों का टकराव दो भारतीय ताकतों का टकराव था।भारत के प्रथम शक्तिशाली हूण सम्राट तोरमाण के शासनकाल के पहले ही वर्ष का अभिलेख मध्यभारत के एरण नामक स्थान से वाराह मूर्ति से मिला है। हूणों के देवता वाराह थे।कालांतर में हूणों से संबंधित माने जाने वाले गुर्जरों के प्रतिहार वंश ने मिहिरभोज के नेतृत्व में उत्तर भारत में अंतिम हिन्दू साम्राज्य का निर्माणकिया और हिन्दू संस्कृति के संरक्षण में हूणों जैसी प्रभावी भूमिका निभाई।तोरमाण हूण की तरह गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज भी वाराह का उपासक था और उसने आदि वाराह की उपाधि भी धारण की थी। जाटों, गुर्जर-प्रतिहारों ने 7वीं शताब्दी से लेकर 10वीं शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों से भारत और उसकी संस्कृति की जो रक्षा की उससे सभी इतिहासकार परिचित हैं।समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था, क्योंकिभोज राजाओं ने 10वीं सदी तक इस्लाम को भारत में घुसने नहीं दिया था। मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को आर्यवृत्त का महान सम्राट कहा जाता था। गुर्जर संभवतः हूणों और कुषाणों की नई पहचान थी।अतः हूणों और उनके वंशज गुर्जरों ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुलहूण औरमिहिरभोज गुर्जर को समकालीन हिन्दू समाज द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा जाना आश्चर्य नहीं होगा। निश्चित ही इन सम्राटों ने हिन्दू समाज को बाहरी और भीतरी आक्रमण से निजाद दिलाई थी इसलिए इनकी महानता के गुणगान करना स्वाभाविक ही था। लेकिन मध्यकाल में भारत के उन महान राजाओं के इतिहास को मिटाने का भरपूर प्रयास किया गया जिन्होंने यहां के धर्म और संस्कृति की रक्षा की। फिर अंग्रेजों ने उनके इतिहास को विरोधामासी बनाकर उन्होंने बौद्ध सम्राटों को महान बनाया। सचमुच सम्राट मिहिरकुल सम्राट अशोक से भी महान थे। जारी...

=== Part - 4 ======

काश सम्राट मिहिरकुल ने ब्राह्मणों को संरक्षण दिया नही होता!
हूण सम्राट मिहिरकुल महान शिव भक्त था| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाया था| कर्नल टाड के अनुसार बडोली, राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण हूणराज मिहिरकुल ने कराया था| इसी प्रकार मिहिरकुल हूण ने भारत में कश्मीर स्थित मिहिरेश्वर नामक प्रसिद्ध शिव मंदिर सहित हजारो शिव मंदिरों का निर्माण कराया था| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं | वृष शिव कि सवारी हैं जिसका नाम नंदी हैं| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार मिहिरकुल हूण ने ब्राह्मणों को सात सौ गांव दान में दिए| कल्हण हूण सम्राट मिहिरकुल को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|
बौद्ध चीनी यात्री हेन सांग ने भारत में बौद्ध धर्म के अवसान के लिए मिहिरकुल हूण को जिम्मेदार माना हैं| हेन सांग के अनुसार मिहिरकुल ने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी थी| उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|
ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान में मिहिरकुल हूण अति महत्त्व पूर्ण भूमिका हैं| मिहिरकुल हूण द्वारा ग्रंथ जैन ओर बौद्ध धर्म के अनुयायियों के दमन ओर ब्राह्मण धर्म के संरक्षण की नीति का भारतीय समाज क्या प्रभाव हुआ इसका समुचित मूल्यांकन किये जाने की आवशकता हैं|

==== Part - 5 ====

डाँ सुशील भाटी जी के ब्लाँग जनइतिहास से साभार

ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों की संकल्पना ग्यारहवी शताब्दी के पूर्वार्ध तक अपना निश्चित आकार ले चुकी थी| भगवान विष्णु के दस अवतार माने जाते हैं- मतस्य, क्रुमु, वाराह, नरसिंह, वामन, पशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध ओर कल्कि|  पुराणों के अनुसार कल्कि अवतार भगवान विष्णु के दस अवतारों में अंतिम हैं जोकि भविष्य में जन्म लेकर कलयुग का अंत करके सतयुग का प्रारंभ करेगा| अग्नि पुराण ने कल्कि अवतार का चित्रण तीर-कमान धारण किये हुए  एक घुडसवार के रूप में किया हैं| कल्कि पुराण के अनुसार वह हाथ में चमचमाती हुई तलवार लिए सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, युद्ध ओर विजय के लिए निकलेगा तथा बोद्ध, जैन ओर म्लेछो को पराजित करेगा|
परन्तु कुछ पुराण ओर कवि कल्कि अवतार के लिए भूतकाल का प्रयोग करते हैं| वायु पुराण के अनुसार कल्कि अवतार कलयुग के चर्मौत्कर्ष पर जन्म ले चुका हैं| मतस्य पुराण, बंगाली कवि जयदेव (1200 ई.) ओर चंडीदास के अनुसार भी कल्कि अवतार की घटना हो चुकी हैं| अतः कल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हो सकता हैं|

जैन पुराणों में भी एक कल्कि नामक भारतीय सम्राट का वर्णन हैं| जैन विद्वान गुणभद्र नवी शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखता हैं कि कल्किराज का जन्म महावीर के निर्वाण के एक हज़ार वर्ष बाद हुआ| जिन सेन ‘उत्तर पुराण’ में लिखता हैं कि कल्किराज ने 40 वर्ष राज किया और 70 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई|  कल्किराज अजितान्जय का पिता था, वह बहुत निरंकुश शासक था, जिसने दुनिया का दमन किया और निग्रंथो के जैन समुदाय पर अत्याचार किये| गुणभद्र के अनुसार उसने दिन में एक बार दोपहर में भोजन करने वाले जैन निग्रंथो के भोजन पर भी टैक्स लगा दिया जिससे वो भूखे मरने लगे | तब निग्रंथो को कल्कि की क्रूर यातनाओ से बचाने के लिए एक दैत्य का अवतरण हुआ जिसने वज्र (बिजली) के प्रहार से उसे मार दिया ओर अनगिनत युगों तक असहनीय दर्द ओर यातनाये झेलने के लिए रत्नप्रभा नामक नर्क में भेज दिया|

प्राचीन जैन ग्रंथो के वर्णनों के अनुसार कल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं जिसका शासनकाल महावीर की मृत्यु (470 ईसा पूर्व) के एक हज़ार साल बाद, यानि कि गुप्तो के बाद, छठी शताब्दी ई. के प्रारभ में, होना चाहिए चाहिए| गुप्तो के बाद अगला शासन हूणों का था| जैन ग्रंथो में वर्णित कल्कि का समय और कार्य हूण सम्राट मिहिरकुल के साथ समानता रखते हैं| अतः कल्कि राज ओर मिहिरकुल (502- 542 ई.) के एक होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता| इतिहासकार के. बी. पाठक ने सम्राट मिहिरकुल हूण की पहचान कल्कि के रूप में की हैं, वो कहते हैं कि कल्किराज मिहिरकुल को दूसरा नाम है|

जैन ग्रंथो ने कल्किराज के उत्तराधिकारी का नाम अजितान्जय बताया हैं| मिहिरकुल हूण के उत्तराधिकारी का नाम भी अजितान्जय था|

चीनी यात्री बौद्ध भिक्षु हेन सांग मिहिरकुल की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष बाद भारत आया| उसके द्वारा लिखित सी यू की नामक वृतांत इस मामले में कुछ और प्रकाश डालता हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल कि मृत्यु के समय भयानक तूफ़ान आया और ओले बरसे, धरती कांप उठी तथा चारो ओर गहरा अँधेरा छा गया| बौद्ध पवित्र संतो ने कहा कि अनगिनत लोगो को मारने ओर बुध के धर्म को उखाड फेकने के कारण मिहिरकुल गहरे नर्क में जा गिरा जहाँ वह अंतहीन युगों तक सजा भोगता रहेगा|  जैन धर्म पर प्रहार करने वाले निरंकुश कल्कि के गहरे नर्क में जाने ओर अनगिनत युगों तक दुःख ओर यातनाये झेलने का वर्णन,  बौद्ध धर्म पर प्रहार करने वाले निरंकुश मिहिरकुल के नर्क में गिरने के वर्णन से बहुत मेल खाता हैं| अतः जैन ग्रन्थ में वर्णित कल्कि राज के मिहिरकुल होने की सम्भावना प्रबल  हैं|
ब्राह्मण ग्रन्थ अग्नि पुराण ने कल्कि अवतार का चित्रण तीर-कमान धारण करने वाला एक घुडसवार के रूप में किया हैं| कल्कि पुराण के अनुसार वह हाथ में चमचमाती हुई तलवार लिए सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, युद्ध ओर विजय के लिए निकलेगा तथा  बोद्ध, जैन ओर म्लेछो को पराजित कर धर्म (ब्राह्मण/हिंदू धर्म) की पुनर्स्थापना करेगा|  इतिहास में हूण कल्कि की तरह श्रेष्ठ घुडसवार ओर धनुर्धर के रूप में विख्यात हैं तथा  कल्किराज/  मिहिरकुल हूण ने भी कल्कि की तरह  जैन  ओर बोद्ध धर्म के अनुयायियों का दमन किया था|  कश्मीरी ब्राह्मण विद्वान कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था| कल्हण ने राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ में मिहिरकुल का वर्णन ब्राह्मण समर्थक शिव भक्त के रूप में किया हैं| कल्हण कहता हैं कि मिहिरकुल ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया ओर ब्राह्मणों को 700 गांव (अग्रहार) दान में दिए| हूणों के शासन से पहले कश्मीर ही नहीं वरन पूरे भारत में बौद्ध धर्म प्रबल था| भारत में बौद्ध धर्म के अवसान ओर ब्राह्मण धर्म के संरक्षण एवं विकास में मिहिरकुल हूण की एक प्रमुख भूमिका हैं|
मिहिरकुल की संगति कल्कि अवतार के साथ करने में एक कठनाई ये हैं कि कुछ इतिहासकार हूणों को विधर्मी संस्कृति का विदेशी आक्रांता मानते हैं| किन्तु हूणों को विधर्मी ओर विदेशी नहीं कहा जा सकता हैं| ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हारा हूण (किदार कुषाण) लगभग 360 ई. में भारत के पश्चिमीओत्तर में स्थापित राजनेतिक शक्ति थे| श्वेत हूण भी पांचवी शताब्दी में पश्चिमीओत्तर भारत के शासक थे| 500 ई. लगभग जब तोरमाण ओर मिहिरकुल के नेतृत्व में जब हूणों ने मध्य भारत में साम्राज्य स्थापित किया तब वो ब्राह्मण संस्कृति ओर धर्म का एक हिस्सा थे, जबकि गुप्त सम्राट बालादित्य बौद्ध धर्म का अनुयायी था| अतः हूणों ओर गुप्तो टकराव राजनैतिक सर्वोच्चता ओर साम्राज्य के लिए दो भारतीय ताकतों का संघर्ष था| भारत के प्रथम हूण सम्राट तोरमाण के शासन काल के पहले ही वर्ष का अभिलेख मध्य भारत के एरण नामक स्थान से वाराह मूर्ति से मिला हैं| हूणों के कबीलाई देवता वाराह का सामजस्य भगवान विष्णु के वाराह अवतार के साथ कर उसे ब्राह्मण धर्म में अवशोषित किया जा चुका था|  कालांतर में हूणों से सम्बंधित माने जाने वाले गुर्जरों के प्रतिहार वंश ने मिहिर भोज के नेतृत्व में उत्तर भारत में अंतिम हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया ओर ब्राह्मण संस्कृति के संरक्षण में हूणों जैसी प्रभावी भूमिका निभाई| गुर्जर प्रतिहारो की राजधानी कन्नौज संस्कृति का उच्चतम केंद्र होने के कारण महोदय कहलाती थी|  तोरमाण हूण के तरह गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज भी वाराह का उपासक था ओर उसने आदि वाराह की उपाधि भी धारण की थी| संभवतः आम समाज के द्वारा मिहिरभोज को भगवान विष्णु का वाराह अवतार माना जाता था| गुर्जर- प्रतिहारो ने सातवी शताब्दी से लेकर दसवी शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों से भारत ओर उसकी संस्कृति की जो रक्षा की उससे सभी इतिहासकार परिचित हैं| समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहा हैं| मिहिरभोज ने आदि वाराह की उपाधि आर्य धर्म ओर संस्कृति के रक्षक होने के नाते ही धारण की थी| मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को उसके गुरु राजशेखर ने आर्यवृत्त का सम्राट कहा हैं|  गुर्जर सभवतः हूणों ओर कुषाणों की नयी पहचान थी|
अतः हूणों ओर उनके वंशज गुर्जरों ने ब्राह्मण/हिंदू धर्म ओर संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुल हूण ओर मिहिरभोज गुर्जर को समकालीन ब्राह्मण/हिंदू समाजो द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा गया हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैं|

==== Part 6 ====

पांचवी शताब्दी के मध्य में, ४५० इसवी के लगभग, हूण गांधार इलाके  के शासक  थे, जब उन्होंने वहा से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया| कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए| ४९५ इसवी के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तो से पूर्वी मालवा छीन लिया| एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं| जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या  नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी|

तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था|  उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके  में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया|मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं|

कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने “क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी” नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं|मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ “सी-यू-की” में लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले  मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर  राज  करता था | वह  कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था|

हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से  बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में  भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के  सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में “राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ७०० ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|

मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं |

हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों  के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके  में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|

इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं|
  सन्दर्भ ग्रन्थ

1.  K C Ojha, History of foreign rule in Ancient India,  Allahbad, 1968.
2. Prameswarilal Gupta, Coins, New Delhi, 1969.
3. R C Majumdar, Ancient Iindia.
4. Rama Shankar Tripathi, History of Ancient India, Delhi, 1987.
5. Atreyi Biswas, The Political History of Hunas in India, Munshiram Manoharlal Publishers, 1973.
6. Upendera Thakur, The Hunas in India.
7. Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, vol.2
8. J M Campbell, The Gujar, Gazeteer of Bombay Presidency, vol.9, part.2, 1896
9. D R Bhandarkarkar Gurjaras, J B B R A S, Vol.21, 1903
10. Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, edit. William Crooke, Vol.1, Introduction
11. P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965
12. V A Smith, Earley History of India                                                      
13. K B PATHAK, COMMEMORATIVE ESSAYS, NEW LIGHT ON GUPTA ERA AND MIHIRKULA, P215 http://www.archive.org/stream/commemorativeess00bhanuoft/commemorativeess00bhanuoft_djvu.txt
14.  KRISHNA CHANDRA SAGAR, FOREIGN INFLUENCE ON ANCIENT INDIA http://books.google.co.in/books?

रविवार, 31 जुलाई 2016

पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God

पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण


पं बालकृष्ण गौड लिखते है कि जिसको कहते है रजपूति इतिहास
तेरहवीं सदी से पहले इसकी कही जिक्र तक नही है और कोई एक भी ऐसा शिलालेख दिखादो जिसमे रजपूत शब्द का नाम तक भी लिखा हो। लेकिन गुर्जर शब्द की भरमार है, अनेक शिलालेख तामपत्र है, अपार लेख है, काव्य, साहित्य, भग्न खन्डहरो मे गुर्जर संसकृति के सार गुंजते है ।अत: गुर्जर इतिहास को राजपूत इतिहास बनाने की ढेरो सफल-नाकाम कोशिशे कि गई।
पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God 




• कर्नल जेम्स टोड कहते है कि राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश अर्थात राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं।

• प्राचीन काल से राजस्थान व गुर्जरात का नाम गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश, गुर्जराष्ट्र) था जो अंग्रेजी शासन मे गुर्जरदेश से बदलकर राजपूताना रखा गया ।

• कविवर बालकृष्ण शर्मा लिखते है :

चौहान पृथ्वीराज तुम क्यो सो गए बेखबर होकर ।
घर के जयचंदो के सर काट लेते सब्र खोकर ॥
माँ भारती के भाल पर ना दासता का दाग होता ।
संतति चौहान, गुर्जर ना छूपते यूँ मायूस होकर ॥


कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Inscription of Gurjar History by Rajput Historian James Tod

कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Inscription of Gurjar History by Rajput Historian James Tod 


• कर्नल जेम्स टोड कहते है कि राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश अर्थात राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं।

• प्राचीन काल से राजस्थान व गुजरात का नाम गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश, गुर्जराष्ट्र) था जो अंग्रेजी शासन मे गुर्जरदेश से बदलकर राजपूताना रखा गया।


गुर्जर हूण वीरो की विजयनी सैना | Victorious Army of Huna Veer Gurjars

गुर्जर हूण वीरो की विजयनी सैना 

गुर्जर हूण वीरो की विजयनी सैना | Victorious Army of Huna Veer Gurjars

हूण पशुजीवी ही नही थे आयुध जीवी भी थे । बडे - बडे व दूर - दूर तक लम्बे धावे मारना इनका शोक था  ।

हूण वीरो की लडाई की एक बडी चाल थी,  दुश्मन के सामने पराजित होने का अभिनय कर के भाग पडना । ओर जब दुश्मन उनका पीछा करते कुछ दूर निकल जाता  , तो सुशिक्षित,  सुसंगठित जहां - तहां छिपे हुये हूणवीरो के दस्ते शत्रु की पीठ पर आक्रमण कर देते  ।

हूणवीर माउदून ने चीन के युद्ध मे एक बार इस तरह 3  लाख  20 हजार चीनी सेनिको को अपने जाल मे फसा लिया था  ।

चीन सम्राट अपनी सेना के साथ आधुनिक ता - तुड - फू ( शेनसी  ) से एक मील दूर एक दृढ दुर्ग- बद स्थान पर पहुच चुका था  , लेकिन  उसकी अधिकांश सेना पीछे रह गयी थी  ।

हूण वीर " माउदून " अपने 3 लाख सैनिको के साथ चीनियो पर टूट पडा ओर चीनी सम्राट चारो तरफ से घिर गया । चीनी सेना 7 दिन तक घिरी रही  । बडी मुश्किल से चीनी अपने सम्राट को घेर मे से बाहर निकाल पाये । माउदून के घेरे का एक कोना ढीला था । इस निर्बल कोने से चीनी सम्राट निकल भागने मे समर्थ हुआ । माउदून ने पीछा नही किया ।
समझोते मे चीनियो को बहुत अपमानजनक बाते स्वीकार करनी पडी । हूणवीर  माउदून के साथ चीनी सम्राट का समझोता हुआ ओर चीनियो को अपनी एक राजकुमारी  , रैशम तथा बहुमूल्य हीरे जवाहरात,  रत्न,  चावल,  अगूंरी शराब तथा बहुत तरह के खाद्य पदार्थ  भेंट देने के लिये मजबूर होना पडा  ।

इस तरह चीनी राजकुमारीयो का शक्तिशाली हूण वीरो से ब्याह करने की प्रथा चली ।
क्योकि राजकुमारी का लडका मातृपक्ष का पक्षपाती होगा  ।

चीन सम्राट  हूड-ती के मरने के बाद उसकी विधवा रानी को -ठूँ अपने पुत्र  ( वैन - ती  ) को बैठा कर बारह साल  ( 187 - 179  ईसापूर्व ) तक स्वय राज करती रही । हूण वीरो मे पितृ - सताक समाज होने के कारण कुछ सुभीता था,  जिसके कारण कितने ही चीनी भाग कर उनके राज्य मे चले आते थे ।

 ऐसे ही किसी दरबारी की बातो मे पडकर माउदून ने रानी को सदेंश-पत्र- भेजकर अपने हाथ ओर ह्रदय को देने का प्रस्ताव किया ।
दरबारीयो ने युध्द की आग भडकाने की कोशिश करी , लेकिन किसी समझदार ने चीनी रानी को समझाया

  " कि अभी भी हमारी आम जनता हमारी ही सडको पर चीनी सम्राट के युध्द से भागने के गीत गाते फिरते हे "

 चीनी रानी ने कूटनीतिक रूप से हूणवीर सम्राट   माउदून को बहुत नरम सा  पत्र लिखा -- " मेरे  दाँत ओर केश परम भटारक ( आप ) को प्राप्त करने के योग्य नही हे "  साथ ही दो राजकीय रथ  , बहुत से अच्छे घोडे तथा दूसरी बहुमूल्य भैंट भेजी ।

 तब जाकर " माउदून " को दरबारीयो की अनावश्यक युध्द करवाने की चाल समझ आई ओर इस पर हूण वीर माउदून अत्यंत लज्जित हुआ ओर उसने बहुत से हूणी घोडे भेज कर चीनी रानी से  क्षमा मागी ।
हूणवीर माउदून ने बहुत लम्बे समय तक  ( 36 साल ) राज्य किया ।

सन्दर्भ :--
1. A Thousands years of Tattars :- E.  H. Parker,  Shanghai - 1895
2. Histoire d ' Attila et De ses successures : Am. Thierry -- Paris - 1856 
3. History of the Hing - nu in their Relations with China :-- Wylie - Journal of Anthropological institute -- London,  Volume III - 1892 -93

संसद भवन पर आतंकी हमले मे शहीद वीर गुर्जर | Saheed Veer Gurjars in Terrorist attack of Indian Parliament on 2001

संसद भवन पर आतंकी हमले मे शहीद वीर गुर्जर | Saheed Veer Gurjars in Terrorist attack of Indian Parliament on 2001

संसद भवन पर आतंकी हमले मे शहीद वीर गुर्जर | Saheed Veer Gurjars in Terrorist attack of Indian Parliament on 2001

जब 11 सितम्बर सन 2001 को तालिबानी आतंकियों ने अमेरिका के पेंटागन की इमारत को हवाई जहाज की टक्कर मारकर धवस्त कर दिया था तब सारा संसार विस्मित था कि सर्वशक्तिशाली समझे जाने वाले अमेरिका पर हमला करने का दुस्साहस किसको हो गया है।
कुछ दिनों के बाद स्पष्ट हो गया था कि यह सब ओसामा बिन लादेन की करतूत है।
उसी तर्ज पर पाक-प्रशिक्षित आंतकवादियों ने भारतीय संसद को उड़ाने का 13.12.2001 को उड़ाने का दुस्साहस किया वे सभी मंत्रियों,प्रधानमंत्री तथा सांसदों को मारना चाहते थे।
उस दिन आंतकवादी छद्मम वेश में कार में बैठकर आये थे कार पर दिल्ली पुलिस के चिन्ह लगा दिये थे।
उस समय ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी उन्हें पहचान नही पायें तभी आंतकवादियों की कार ने महामहिम उपराष्ट्रपति की कार में हल्की सी टक्कर मार दी।
उस कार का ड्राइवर बिजेन्द्र सिंह हवलदार(गुर्जर)वहीं खड़ा था उसने उन्हें डाट दिया आतंकियों ने दनादन गोलियाँ बरसानी शुरु करदी।
संसद के प्रहरियों ने भी बड़ी मुस्तैदी से गोली चलानी शुरू करदी।
5 आंतकी वहीं ढ़ेर हो गये और एक भागने में सफल हो गया परन्तु संसद भवन को बचाने में भारत के भी सात जवान शहीद हो गये।
इन सात सपूतों में चार गुर्जर वीर थे।

जिनके नाम इस प्रकार है।
(1) श्री नानकचंद ए.एस.आई पलवल हरियाणा
(2) श्री महिपाल कांस्टेबल मथुरा उत्तर प्रदेश
(3) श्री बिजेन्द्र सिंह हैड कांस्टेबल ग्राम मोलड़बंद दिल्ली
(4) श्री वीरेन्द्र सिंह ग्राम टील्ला गाजियाबाद उत्तर प्रदेश

इन गुर्जर वीरों के बलिदान से यह सिद्ध हो जाता है कि गुर्जर जाति महान देशभक्त जाति है जिनके वीरों ने सदैव अपनी जान की परवाह न करके आक्रमणकारियों के इरादों को असफल करने का प्रयास किया है।


नववर्षोत्सव / Navvarsoutsav - Huna Gurjars

 नववर्षोत्सव 

Hoon / Huna Gurjars

महान धनुर्धर हूणो का प्राचीन इतिहास
(  ईसापूर्व )

यह हूणो का सबसे बडा राष्ट्रीय मैला था,  जिसमे शान - यू ( हूण राजा ) बडी शान  - शोकत से मनाता था । पितरो  , तिडःरी ( दैव ) , पृथिवी ओर भूत- प्रेतो के लिये बलि इसी समय दी जाति थी  ।
शरद मे दूसरा महोत्सव मनाया जाता था  , जिसमे ओर्दू की जनगणना ,  सम्पत्ति ओर पशुओं पर कर लगाने का काम किया जाता था ।

हूण - जनो मे अपराध कम था ओर उसके दण्ड देने मे देरी नही की जाती थी ।
 वह दोनो महोत्सवो के समय किया जाता था । महोत्सव मे घुड - दोड  , ऊटो की दोड व ऊटो की लडाई तथा दूसरे कितने ही सैनिक ओर नागरिक मनोरंजन के खैल होते थे ।

हूणो के अपराध दण्ड मे मृत्यु -  दण्ड तथा घुटना तोड देना भी शामिल था  । सम्पति के विरूद्ध अपराध का  दण्ड था सारे परिवार का दास बना दिया जाना ।

नववर्षोत्सव ओर शरदोत्सव दोनो सामाजिक , राजनीतिक ओर धार्मिक महा - सम्मेलन थे  ।

" इनके अतिरिक्त भी शान - यू  ( हूण राजा) को कुछ धार्मिक कृत्य रोज करने पडते थे । दिन मे  राजा सूर्य को नमस्कार करता ओर सन्ध्या को चन्द्रमा की पूजा ओर नमस्कार  । "

चीनीयो की भांति हूण जन भी पूर्व ओर वाम दिशा को श्रेष्ठ मानते थे । हूण राजा सभा मे उतर की ओर मुंह करके बैठता  था ।
 जबकि चीन सम्राट का बेठना दक्षिणाभिमुख होहोता  था ।

 चांन्द्रमास की तिथियो को प्रधानता दी जाती थी ।
सेना अभियान के लिये शुक्ल पक्ष तथा वहा से लोटने कै लिए कृष्ण पक्ष प्रशस्त माना जाता था ।

लूट मे सम्पत्ति ओर बंदी हुये दासो का स्वामी वही होता था  , जिसने दुश्मन से उन्हे छीना था ।

दुश्मन का सिर काट लेना  ,
बहुत बडी वीरता मानी जाती थी ।

सन्दर्भ :--
1 . A Thousand Years of  Tatars : E.  H . Parker, Shanghai - 1895
2. हुन्नू इ गुन्नी : क. इनस्त्रान्त्सेफ,  लेनिनग्राद - 1926 
3. Histoire des Huns : Desqugue - Paris : 1756
4. Excavation in Northan Mangolia - C.  Trever - Leiningrad

शनिवार, 30 जुलाई 2016

प्राचीन हूण (गुर्जर) - ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (1400 ई. पूर्व से -200 ईसा पूर्व ) | Historical background of Ancient Huna Gurjars

प्राचीन हूण (गुर्जर) - ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (1400 ई. पूर्व से -200 ईसा पूर्व )

Huna / Hoon Gurjars

शको को उनके मूल स्थान से निकाल कर उस पर अपना अधिकार जमाना हूणो का ही काम था  यही नही  ,  बल्कि मध्य ऐशिया के उतरापथ ओर दक्षिणा पथ दोनो मे जो आज सभी जगह मंगोलियन चैहरे देखे जाते है,  यह भी हूणो की ही दैन हे ।

शको की तरह हूण भी घूमन्तू कबीले थै । मध्य -  ऐशिया मे दोनो एक दूसरे के पडोसी थे । यू- ची के निकाले जाने से पहले शक -  भूमि त्यानशान ओर अल्ताई से पूरब हूणों की गोचर भूमि से मिल जाती है । इसलिये अन्तिम सघर्ष के पहिले भी इनका कभी - कभी आपस मे युध्द ,  वस्तु विनिमय के लिऐ सघर्ष हो जाया करता था । चीन के इतिहास से पता लगता हे कि वहा पर भी धातुयुगीन सांस्कृतिक विकास मे पश्चिम से जाने वाली जाति का विशेष हाथ रहा हे ।

यह जाति शक - हूणो  से समबन्ध रखने वाली थी  , इसमे सन्देह नही  । तातार ओर तुर्क यह दोनो शब्द हूणो के वंशजों के लिये इस्तेमाल हुये हे  , लकिन चीनी इतिहास मे ईसा की दूसरी सदी के पूर्व तातार शब्द का पता नही  लगता है , ओर पाँचवी सदी से पहिले तुर्क शब्द भी उनके लिये अज्ञात था ।
ग्रीक ओर ईरानी स्त्रोत जब सूखने लगते हे  , इसी समय से चीनी स्त्रोत हमारे लिये खुल जाते हे ।

शको व हूणो  के बारे मे चीनी इतिहिसकारो ने बहुत कुछ लिखा हे लेकिन अभी तक उसमे से थोडा ही यूरोप की भाषाओ मे आ सका हे । रूसी विद्वानो का इस सामग्री को प्रकाश मे लाने तथा व्यवस्थित रूप से छानबीन करने का काम बहुत सराहनीय हे ।

किन्तु वह रूसी भाषा मे लिपिबद्ध होने से हमारे लिये बहुत उपयोगी नही हुआ । नवीन चीन ओर सोवियत -  रूस आज सारी शक-हूण भूमी का स्वामी है । वहा इतिहास के अनुसंधान मे जितनी दिलचस्पी दिखाई जाती है  , उससे आशा हे कि उनके बारे मे पुरातत्व  - सामग्री तथा लिखित सामग्री से बहुत सी बाते मालूम होगी  । त्यानशान ( किरगिजिया ) मे नरीन की खुदाई मे हूणो के विशेष तरह के बाण के फल तथा मट्टी के गोल कटोरे ओर दूसरी चीजे भी मिली हे ।

इस्सि कुल सरोवर के किनारे त्यूप स्थान मे भी इस काल की कुछ चीजे मिली है  । जो कि मास्को के राजकीय ऐतिहासिक म्यूजियम मे रखी हुई है ।

कजाक गणराज्य के बैरकारिन स्थान मे निकली कब्र मे भी कुछ चीजे मिली है । वही कराचोको ( ईलीपत्यका ) मे खुदाई करने पर शक - हूणो के पीतल के बाण मिले । जो मिन सुन ओर उनके उत्तराधिकारीयो से सबंध रखने वाले हे । हूणो के पीतल के हथियार पूर्वी यूरोप  ( चेरतोम लिक ) से बेकाल ओर मन्चूरिया की सीमा तक है इनकी गोचर भूमि समय  - समय पर बहुत दूर तक फैली हुयी थी ।
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डाक्टर बेर्नश्ताम - सप्तनद , अल्ताई ओर त्यानशान के प्राचीन इतिहास ओर पुरातत्व के बडे विद्वान --- का कहना हे कि ईसापूर्व  6  ठी  शताब्दी मे इस सारे इलाके मे घूमन्तु हूण- जनो का निवास था । यह भी पता लगा हे कि हूणो ने कुछ काम खेती का भी सीखा था  , तब भी वह प्रधानतया पशुपालक ही थे ।
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चीन मे भी अपने इतिहास को बहुत अधिक प्राचीन दिखलाने का आग्रह रहा हे  , किन्तु चीन का यथार्थ इतिहास ईसापूर्व  6 ठी शताब्दी से शुरू होता हे  । उसके पहले की सारी बाते पोराणिक जनश्रुतियो से अधिक महत्व नही रखती हे ।

चीन का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश चिन  ( 255 - 206  ईसापूर्व ) है । इस वंश के सस्थापक चिन-शी-हाग्ड-ती ( 255 - 250  ईसापूर्व ) ने बहुत सी छोटी  - छोटी  सामन्तियो मे बटे हुयै चीन को एक राज्य मे संगठित किया । इससे पहले उतर के घूमन्तू हूण चीन को अपने लूटपाट का क्षेत्र बनाये हुये थे ।

यह अश्वारोही  , मांसभक्षी कूमिशपायी - खतरनाक लडाके बराबर अपने पडोस के चीनी गावो ओर नगरो पर धावा-आक्रमण किया करते थे। उनकी संपत्ति घोडा  , ढोर  ओर भेड थी कभी कभी ऊंट  , गदहे  , खच्चर भी इनके पास देखे जाते थे  ।

वर्तमान मगोलिया  , मंचूरिया तथा इनके उतर के साईबेरिया के भू- भाग  इनकी चरागाह भूमी थी ।

हूण कबीलो को चीनी मे

 " हाण्ड-नू "

कहते थे । तुर्क  , किरगिज , मगयार ( हूंगर )  आदि इनके ही उतराधिकारी हुए । हाण्ड- नू ( हूण ) के अतिरिक्त चीनी इतिहास एक ओर घूमन्तु मगोलायित जन का पता देता हे ,
जिसको  " तुड- हू " कहते थे ।

इन्ही के उतराधिकारी पीछे कित्तन  ( खिताई ) , मन्चू आदि हुऐ  । विशाल हूणो के बहुत छोटे - छोटे  उप - जन ( कबीले ) थे जिनके अपने अपने  सरदार हुआ करते थे । हमारे यहा तथा दूसरे  देशो मे भी " ओर्दू  ( उर्दु ) शब्द सेना का पर्याय माना जाता हे । इन घुमन्तू ओ मे एक पूरे जन - जिसमे उसके सभी नर  - नारी , बाल वृद्ध सम्मिलित थे  - को  ओर्दू  कहा जाता था ।

 इनका शासन जनतान्त्रिक था  , सरदारों को जनके ऊपर अपना स्वतंत्र दर्जा कायम करने का अधिकार नही था । हूणो के  बच्चे बचपन से ही पशुओ को चराना सीखते थे,  वहा उससे  भी पहिले अपनी छोटी सी धनुष - बाण से  सियार ओर खरगोश  का शिकार करते  थे  ।

नंगी पीठ  पर  घुडसवारी करना भी बचपन ही से इन्हे सिखाया जाता था ओर अधिक क्षमता प्राप्त करने पर वह घोडे पर बेठे - बेठे  ही धनुष चलाने लगते थे । दूध व मांस का भोजन तथा चमडे की पोशाक इन्हे अपने पशुओ के ऊपर निर्भर करती थी । ऊन के नम्दे भी ये बना लेते थे ।  दया - माया  की इनके यहा कम ही गुंजाइश थी  इनके हथियार धनुष - बाण,  तलवार ओर छुर्रे होते थे ।

 साल मे तीन बार इनकी जन- सभा होती थी  , जबकि सारा ओर्दू ( कबीला ) एकत्रित होकर धार्मिक और सामाजिक कृत्यों को पूरा करता  , वहा साथ ही राजनीतिक ओर दूसरे झगडे भी मिटाता ।

बहुत से सरदारों के ऊपर निर्वाचित राजा को " शान्य" कहा जाता था ।

 1400 - 200 ईसापूर्व  तक चीन मे इन घूमन्तूओ की लूटपाट बराबर होती रहती थी ।
ईसापूर्व तीसरी शताब्दी मे  सान-'शी , शेन- शी , ची- ही मे  इनके  ओर्दू विचरा करते थे । इसी समय हाण्ड - हो नदी के मुडाव पर भी इनका ओर्दू रहा करता था  , जिसके कारण आज भी उस प्रदेश को " ओर्दू स" कहते हे ।

 चिन - शी  - हाण्ड- ती ( 255-206  ईसापूर्व ) ने  चीन के बडे  भू - भाग  को एक राज्य मे परिणत कर सोचा  , कि इन हूणो  की  लूटमार  सै  केसे चीन की रक्षा की जाये  ।
इसके लिये उसने

"चीन की महान दीवार "

के कितने ही भाग को एक रक्षा प्राकार के तोर पर निर्मित करवाया ओर ओर्दू तथा तथा शान - सी आदि प्रदेशो मे से हूणो के डर से काम जल्दी - जल्दी करवाया । समुन्द्र तट से पश्चिम मे लनचाउ तक इस दिवार
 को बनाने मे 5  लाख  आदमी मर -  मर कर वर्षो तक कोडो के नीचे काम करते रहै  ।

निर्माण काल से लेकर हजार वर्षो तक हूणो ओर चीन की सेना का खूनी संघर्ष होता रहा  , उसके परिणाम स्वरूप लाखो खोपडीयां दीवार के सहारे जमा होती गई  ।

 चीन की यह दिवार हूणो के ईसी आक्रमणो से बचने के लिये चीनी राजवंशो के दवारा बनवाई गई ।

सन्दर्भ :--
1 . A Thousand Years of  Tatars : E.  H . Parker, Shanghai - 1895
2. हुन्नू इ गुन्नी : क. इनस्त्रान्त्सेफ,  लेनिनग्राद - 1926 
3. Histoire des Huns : Desqugue - Paris : 1756
4. Excavation in Northan Mangolia - C.  Trever - Leiningrad 
5. The Story of Chang Kien :  Journal of American Oriental Society Sept -"1917 Page - 77
6.  Histoire d' Attila et de ses successures : Am. Thierry - Paris : 1856
7. History of the  Hing - nu in their Relations with China - Wylie : Journal of Anthropological institute - London,  volume III  - 1892 -93
8. Sur I'origine des Hiung - nu :- Shiratori -- Journal Asiatigus : CC -  II no. I,  1923
9. ओचेर्क इस्तोरिइ सेमिरेचय :-- वरतोल्द - 1868

संसद भवन और गुर्जरो का चौसठ योगिनी मंदिर | Indian Parliament & Gurjar Pratihar Temple (64 Yogini Temple)

संसद भवन और गुर्जरो का चौसठ योगिनी मंदिर 


हमारा संसद भवन ब्रिटिश वास्तुविद् सर एडविन ल्युटेन की मौलिक परिकल्पना माना जाता है. लेकिन,इसका मॉडल हू-ब-हू मुरैना जिले के मितावली में मौजूद गुर्जर वंशी प्रतिहार राजाओ द्वारा बनवाये गए चौंसठ योगिनी शिव मंदिर से मेल खाता है. इसे 'इकंतेश्वर महादेव मंदिर' के नाम से भी जाना जाता है।
मुरैना जिले के मितावली गांव में स्थित चौंसठ योगिनी शिवमंदिर अपनी वास्तुकला और गौरवशाली परंपरा के लिए आसपास के इलाके में तो प्रसिद्ध है, लेकिन मध्यप्रदेश पर्यटन के मानचित्र पर जगह नहीं बना सका है।
स्थानीय लोग इसे ‘चम्बल की संसद' के नाम से भी जानते हैं. इस मंदिर की ऊंचाई भूमि तल से 300 फीट है. इसका निर्माण तत्कालीन गुर्जर प्रतिहार क्षत्रिय राजाओं ने किया था. यह मंदिर गोलाकार है. इसी गोलाई में बने चौंसठ कमरों में एक-एक शिवलिंग स्थापित है. इसके मुख्य परिसर में एक विशाल शिव मंदिर है.
भारतीय पुरातत्व विभाग के मुताबिक़, इस मंदिर को नौवीं सदी में बनवाया गया था. कभी हर कमरे में भगवान शिव के साथ देवी योगिनी की मूर्तियां भी थीं, इसलिए इसे चौंसठ योगिनी शिवमंदिर भी कहा जाता है. देवी की कुछ मूर्तियां चोरी हो चुकी हैं और कुछ मूर्तियां देश के विभिन्न संग्रहालयों में भेजी गई हैं. यह मंदिर कई तरह से अद्वितीय है।
भारत में चार चौंसठ-योगिनी मंदिर हैं, दो ओडिशा में तथा दो मध्य प्रदेश में. मंदिर को एक जमाने में तांत्रिक विश्वविद्यालय कहा जाता था. मंदिर के निर्माण में लाल-भूरे बलुआ पत्थरों का उपयोग किया गया है।

ये गुर्जर धरोहर है इसलिए जर्जर हालात में है यदि यही मंदिर महाराणा प्रताप ने बनवाया होता तो मध्य प्रदेश के बड़े पर्यटन स्थल में से एक होता पर गलती गुर्जर राजाओ की ये रही की उन्होंने अपने वंश को गुर्जर नाम दिया अगर गुर्जर नाम ना दिया होता तो सायद राजपुत कहलाकर ही सही पर उनकी धरोहर को सही जगह मिल जाती।
सबलगढ़ का दुर्ग चौशठ योगिनी मंदिर धौलपुर दुर्ग सब जर्जर हालात में है क्योंकि गुर्जरो के है।
ऐसे तो गुर्जर विदेशी है इतिहास भी नही दिखाएंगे इतिहास भी राजपुतो का बना देंगे ओर ऐसे संसद का मॉडल गुर्जर राजाओ से लिया गया वो भी विदेशी के नाम कर देंगे।
कमाल है!!

Chausath Yogini Temple of Gurjars vs Indian Parliament

तूमन- शान - यू ( 250 ईसा पूर्व ) - महान धनुर्धर हूणो का प्राचीन इतिहास | Tuman Shan Hoon (250 B.C)

तूमन- शान - यू  ( 250  ईसा पूर्व ) - महान धनुर्धर हूणो का प्राचीन इतिहास 



जिस समय चिन - वंश के नेतृत्व मे चीन एकता बद्ध हो रहा था उसी समय  ( 250  ईसा पूर्व ) हूणो मे भी एकता पैदा हुई  । चीन सम्राट की मृत्यु के बाद जो अराजकता पैदा हुई  , उससे  हूणो के प्रथम  शान - यू - तुमन ने लाभ उठाया ओर ओर्दू तथा दूसरे प्रदेशो पर लूटमार की  , ओर ओर्दूस को फिर से अपने  जन  की  गोचर भूमि बना लिया  ।

उतर से हूण आकर फिर पश्चिमी कानू - सू के निवासी यूचियो के पडोसी बन गये । तुमन का प्रभाव अपने जन पर बहुत था । किन्तु हूणो मे सबसे बडा शान - यू ( राजा ) उसका पुत्र माउदून हुआ बुढापे मे पिता ने अपनी तरूणी पत्नी के फेर मे पडकर ज्येष्ठ पुत्र  माउ - दून को  वंचित करके छोटे को राज देना चाहा  ।

सोतेली माॅ ने माउ - दून को रास्ते से अलग करने के लिये उसने अपने पश्चिमी पडोसी  यूची लोगो के पास अमानत रखा ओर फिर यूची- यो पर आक्रमण कर दिया । जिसका अर्थ यह था कि यूची माउदून को मार डालेगे  लैकिन माउ- दून एक तेज घोडे पर चढ कर भाग निकला । पिता ने झूठी प्रसन्नता प्रकट करने के लिये माउ  - दून  को  दस हजारी सरदार बना दिया ।

कहते हे कि माउ - दून ने मिडःली (गाने वाला बाण ) का आविष्कार किया था ओर माउ-दून शब्द भेदी बाण चलाने मे अभ्यस्त था ओर कई बार उसने इस कला का प्रदर्शन  भी  किया था । पिता की  ( तूमन- शान - यू ) असामयिक  मृत्यु  के बाद माउदून शान - यू ( राजा ) बना  ।

सन्दर्भ :--
1 . A Thousands years of tatars -- E.  H.  Parker,  Sanghai - 1895

तेली कत्था नरसंहार | Teli Katha Massacre - Sacrifice of Veer Gurjars

तेली कत्था नरसंहार

तेली कत्था नरसंहार | Teli Katha Massacre 

तेली कत्था नरसंहार जिसमे आतंकवादियों ने उन १२ गुर्जरो को जिन्होंने  भारतीय सेना के साथ मिलकर ऑपरेशन सर्प विनाश चलाया था, सुरणकोट के तेली कत्था गांव में रात में सोते समय बेरहमी से मार दिया था.. इसमें 12 गुर्जरो की जान गयी थी. वास्तव में ऑपरेशन सर्प विनाश बिना गुर्जरो के सहयोग के संभव ही नहीं था. 

https://en.wikipedia.org/wiki/2004_Teli_Katha_massacre

"तुम सजाते ही रहना नए काफिले,
राह कुर्बानियों की ना वीरान हो..."
इन वीर गुर्जरो को मेरी तरफ से श्रद्धांजलि भगवान इन वीरो को जन्नत में जगह दे.

माउ-दून महान - चक्रवर्ती गुर्जर सम्राट (183 ईसा पूर्व ) : महान धनुर्धर घुमन्तु हूण गुर्जरो का प्राचीन इतिहास | History of Ancient Huna Gurjars

 माउ-दून महान - चक्रवर्ती गुर्जर सम्राट (183  ईसा पूर्व ) : महान धनुर्धर घुमन्तु हूण गुर्जरो का प्राचीन इतिहास 

Huna / Hoon Gurjars


शान - यू  ( राजा ) बनते ही माउदून ने अपने तेवर दिखा दिये थे क्योंकि इस समय तक चीन ओर यूची ही नही  , बल्कि पुराने तुंगुस ( तुडःहू, हाण्न ) भी अपने जन का एक बडा संगठन कर चुके थे । हूणो की उनके साथ लडाई होने लगी थी । गोबी की बालु का भूमी के बीच मे दोनो जनो ( दोनो कबीले )  का एक भीषण संघर्ष हुआ ।

वह माउदून का मुकाबला कर बुरी तरह से हारे थे । बहुत से तुंगुसो को हूणो ने अपना दास बना लिया था । उनमे से कुछ भागकर मंगोलिया के उतर - पूर्व मे जाने मे सफल हुये जो बाद मे शक्ति संचय कर के हूणो के प्रतिद्वन्दी  बन गये ।

माउदून एक चतुर सेनानायक था । जन ( कबीला ) के संगठन ओर शासन मे भी उसने वेसी ही प्रतिभा दिखलाई । उसने अपने तीन प्रतिद्वन्दी जनो को परास्त कर हूणो की शक्ति को बढाया ।

उसे कोरोस , दारयोश ओर सिकन्दर की श्रेणी का विजेता माना जाता है ।

तुंगुसों को परास्त करके उत्तर से अपने को सुरक्षित कर पश्चिमी पडोसी यूचियो की खबर लेने की ठानी । यूची ( यूची जो कि कुषाणो के नेतृत्व में फिर से संगठित हुए)भी बडे वीर योध्दा थे  , हूणो की तरह ही घूमन्तू पशुपालन तथा घुडसवारी के साथ धनुष चलाना जानते थे । यह भी संभव है कि हथियार ओर युद्ध की शिक्षा मे हूणो के गुरू ईन्ही के पूर्वज हो ।

यूची ओर माउदून की सेना कितने ही समय तक मुकाबला करते रहे  , किन्तु अंत मे  ( 176 या 174 ईसा पूर्व ) मे उन्हे हूणो के सामने पराजय स्वीकार कर कोकोनोर ओर लोबनोर की अपनी पितृ - भूमी को छोडने के लिऐ मजबूर होना पडा ।

माउदून ने चीन सम्राट वेन-ती( 169 - 156  ईसापूर्व )  को लिखा था :----

 " जितनी जातिया ( तातार ) घोडे पर चढ कर धनुष को झुका सकती हे  , उन्हे एकता बद्ध कर मैने एक विशाल साम्राज्य  कायम कर लिया । यूचियो ओर तरबगताइयो को भी मैने नष्ट कर दिया है । लोबनोर तथा आसपास के  26  राज्य,  मेरे हाथ मे है । अगर तुम नही चाहते  , कि  हाण्ड-नू ( हूण ) महादिवार को पार करे तो तुम्हे चीनीयो को महादिवार के पास हर्गिज नही आने देना चाहिये साथ ही मेरे दूत को नजरबंद न कर तुरन्त लोटा देना चाहिये " ।

माउदून का राज्य पूरब मे कोरिया से लेकर पश्चिम मे बल्काश तक ओर उत्तर मे बैकाल से दक्षिण मे किवनलन पर्वत माला तक फैला हुआ था । उसके पिता के समय हूण राज्य केवल अपने कबीले तक सीमित था ओर दक्षिण मे चीन के भीतर लूटमार भर कर लिया करते थे ।

इतने बडे राज्य संचालन के लिए पुरानी व्यवस्था उपयुक्त नही हो सकती थी  , इसलिए माउदून को नई व्यवस्था कायम करनी पडी ।

यह स्मरण रहना चाहिए  , कि  हूणो का राज्य पितृसत्ताक था , अभी वहा सामन्तशाही नही फैली थी । चीन मे किसान अर्धदास  ओर दास जैसे थे । उनके बाल बच्चे सामन्तो की चल सम्पति थे ।

सन्दर्भ :-
1. A thousands years of Tatars - E. H. Parker, Shanghai - 1895
2. आर्खे . ओर्चेक .  - वेर्नश्ताम

हूणराज कुयुक ( कुयुक- 162 ईसा पूर्व ) - महान धनुर्धर हूण गुर्जरो का प्राचीन इतिहास | Hunraj Kuyuk 162 B.C

हूणराज कुयुक ( कुयुक - 162 ईसा पूर्व ) - महान  धनुर्धर  हूण गुर्जरो का प्राचीन इतिहास



यह हूणराज माउदून महान का पुत्र था जिसे चीनी लेखक लाऊशान शान - यू के नाम से याद करते  है । चीनी सम्राट ने इसके लिए एक खूबसूरत राजकुमारी भेजी थी साथ मे एक ख्वाजासरा  ( किन्नर - हिंजडा ) भी भेजा जो जल्द ही शान - यू का विश्वास पात्र मन्त्री बन गया । चीनी भेंटो ,  राजकुमारीयो के प्रभाव मे आकर हूण ज्यादा विलासी होते जा रहे थे  । ख्वाजासरा इसे पसन्द नही करता था

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 उसने हूणो को समझाया ----

 " तुम्हारे ओर्दू की सारी जनसंख्या मुश्किल से चीन के कुछ परगनो के बराबर होगी  , किन्तु तब भी तुम चीन को दबाने मे समर्थ होते रहे । इसका रहस्य हे तुम्हारा अपनी वास्तविक आवश्यकताओ के लिये चीन से स्वतंत्र होना । मै देखता हू कि तुम दिन पर दिन अधिक ओर अधिक चीनी चीजो के प्रेमी बनते जा रहे हो ।

 सोच लो  , चीनी सम्पत्ति का  5 वां  भाग तुम्हारे  सारे लोगो को पूरी तोर से खरीद लेने के लिये काफी हे । तुम्हारी भूमि के कठोर जीवन के रैशम ओर साटन उतने उपयुक्त नही है ।

जितना की ऊनी नम्दा चीन के तुरन्त नष्ट हो जाने वाले व्यंजन उतने उपयोगी नही हो सकते हे  , जितनी तुम्हारी कूमीश ओर पनीर । "
वह बराबर हूणो को इस तरह से सजग करता रहा ।

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चीन के जवाब मे शान - यू की ओर से जो चिट्ठी उसने लिखवाई थी  , वह चर्म पत्र की लम्बाई चोडाई मे ही अधिक बडी नही थी  , बल्कि उसमे शान - यू  ( कुयुक हूण)की अधिक लम्बी उपाधि भी लिखी गई थी ----

" हूणो के महान शान - यू जेंगी ओर पृथ्वी के पुत्र , सूर्य - चन्द्र - समान आदि "  आदि ।

हूणो का रिवाज हे कि अपनी भैडो ओर ढोरो के मांस को खाना ओर दूध को पीना । वह मोसम कै अनुसार अपने पशुओ को लेकर भिन्न - भिन्न  चारागाहो मे घूमा करते थे ।

" हर एक हूण पुरूष दक्ष धनुर्धर  होता था,"

 शांति के समय उसका जीवन सरल ओर सुखी होता हे । उनके शासन के नियम बिलकुल सरल हे । शासक ओर जनता का सबंध उचित ओर चिरस्थायी है  ।

7 साल शासन करने के बाद ची - यू ( कुयुक हूण) को  चीन कै ऊपर आक्रमण करने की आवश्यकता पडी ।
वह 1 लाख  40 हजार  ( 1, 40,000 ) हूण सेना के साथ लूटपाट करता वर्तमान सियान -  फू तक चला आया ओर बडी भारी संख्या मे लोगो,  पशुओ ओर धन - सम्पति को अपने साथ ले गया । चीनी बडी तैयारी करने मे लगे थे  , किन्तु तब तक ची - यू  अपना काम करके लोट चुका था । कई सालो तक यह ऑतक छाया रहा , फिर इस बात पर सुलह हुई  -----

" महा - दिवार  से  उतर की सारी भूमि धनुर्धरो  ( हूणो  ) की हे  , उससे दक्षिण की भूमि टोपी ओर कमरबंद वालो की "


यू -  ची ---- पलायन :---
__________________
यू ची पलायन ची -  यू की सबसे बडी  विजय थी,  कान्सूस यूची शको को भगाना । माउदून उन्हे सिर्फ परास्त भर कर पाया था । उस समय लोबनोर से हाण्ड- हो ( हूण ) के मुडाव तक यूचियो की विचरण भूमि थी ।

लोबनोरसेउतर- पूरब सइवाडः(शक ) रहते थे । ची - यू ने अपनी सुसंगठित सेना से यूचियो पर लगातार ऐसे जबर्दस्त आक्रमण किये  , जिसके कारण यूचियो को भारी क्षति हुई ओर 176  ईसा पूर्व या 174 ईसा पूर्व मे वह अपनी भूमि छोडकर पश्चिम की ओर भागने के लिये मजबूर हुए ।

सइवाडः ( शको ) की भूमि मे थोडा जाने के बाद यूचियो का एक भाग तरिम- उपत्यका की ओर चला गया ओर दूसरा इली - उपत्यका के रास्ते आगे बढा -- पहले भाग को लघु - यूची कहते हे ओर दूसरे को महा- यूची ।

लघु यूची के आने से पहले तरिम - उपत्यका उन्ही खसो ( कशो ) की थी  , जो कि उस समय भी कशमीर ओर पश्चिमी हिमालय तक फैले हुए थे । अब कुछ शताब्दीयो के लिए तरिम - उपत्यका लघु - यूचियो की हो गई ।
महा यूचियो ने सइवडः ( शको ) को खदेड कर उनकी जगह अपने हाथ मे ले ली ।

शक लोग अपने पश्चिमी पडोसी तथा त्यानशान ओर सप्तनद के निवासी वूसुन पर पडै । महा यूचियो को हूणो ने यहा भी चैन से नही रहने दिया ओर वह बराबर पश्चिम की बढते हुये सिर - दरिया ओर अराल समुन्द्र तक फैल गये । फिर वहा से दक्षिण की ओर घूमे । कुछ समय तक उनका केन्द्र वक्षु नदी के उतर मे था ।

इसी समय ग्रीको - बाख्त्री राजा हैलिवोक मरा था । कास्पियन तटवासी पार्थियो ओर सोग्द- उपत्यका मे पहुचे यूचियो ने उसके राज्य को आपस मे बाटकर इस यवन-राजवंश को खतम कर दिया ।

 सन्दर्भ :--
1 . A Thousand Years of  Tatars : E.  H . Parker, Shanghai - 1895
2. हुन्नू इ गुन्नी : क. इनस्त्रान्त्सेफ,  लेनिनग्राद - 1926
3. Histoire des Huns : Desqugue - Paris : 1756
4.  Histoire d' Attila et de ses successures : Am. Thierry - Paris : 1856

हूणराज - चूचेन (चीयू) (172 - 127 ईसापूर्व) महान धनुर्धर प्राचीन हूण राजवंश

हूणराज - चूचेन (चीयू) (172 - 127  ईसापूर्व)

महान धनुर्धर प्राचीन हूण राजवंश

Ancient Huna / Hoon Gurjars

ची यू के स्थान पर चूचेन शान - यू  ( राजा ) बना । चीनी ख्वाजासरा  ( किन्नर - हिजडा  ) अब भी प्रभावशाली मंत्री था । चीयू के पास भी चीन से नई राजकुमारी आई थी । तत्कालीन चीन सम्राट बू- ती ने उसे धोखे से पकडना चाहा भारी युध्द हुआ लेकिन हूण शान - यू फिर विजेता बन कर निकले ओर अब चीन ओर हूण के निरन्तर सघर्ष होने लगै ओर चीनी सीमांत हूणो की आक्रमण भूमि बना रहा ।

हूण राज ईचिसे - ( 127-117  ईसापूर्व ) 


यह पाँचवा शान - यू  ( राजा )  हूणराज चू- चैन  का भाई था । इसने भी चीन पर लगातार हमले जारी रखे उस समय चीन का सम्राट बूती था जो कि एक शक्तिशाली सम्राट था उसने भी हूणो का बल तोडने के लिये एक शक्तिशाली सेना का गठन किया ओर बडी भारी तैयारी करी चीन की इस बडी भारी सेना ने बूती के नेत्तृत्व मै हूणो की भूमि के एक भाग पर आक्रमण किया ओर कान्सू पर अधिकार कर लिया ।

कान्सू मे एक नगर चाड - वे था जहा कोई हूणो का सरदार रहता था ।
 इस नगर पर विजय के समय चीनी सेना को एक सोने की मूर्ति  ( स्वर्ण - मूर्ति ) मिली जिसकी हूण पूजा किया करते थे ।

 { इस स्वर्ण - मूर्ति  के  बारे मे जानकारी बाद मे विस्तार से दी जायेगी  }

यधपि  चीनी सेना हूणो को  यूचीयो की इस भूमि से  उतर की ओर धकेलने मे कामयाब हुई किन्तु उसे सदा की विजय नही समझती थी इसलिए चीनी सम्राट बूती ने अपने सेनापति चाडः - क्यान को अपने शत्रु हूणो के शत्रु यूचियो के पास भेजा,  कि पश्चिम से यूची भी हूणो पर आक्रमण करे ,  चीनी सम्राट ने यूचियो को अपनी पुरानी भूमि पर आकर वापस बसने का निमंत्रण दिया ।

चाडः - क्यान ( चीनी सेनापति ) 138 ईसा पूर्व मे अपनी यात्रा पर चला । यह चीन का प्रथम यात्री हे जिसका यात्रा विवरण बडा ही ज्ञानवर्धक हे । चाडः - क्यान दस साल हूणो का बन्दी रहा । जब वू- सूनो ने अपने को हूणो से स्वतंत्र कर लिया,  तो यह हूणो की नजरबंदी से भागकर वू - सून भूमि मे होते हुये खोकन्द पहुंचा । वहा के निवासी घुमन्तू नही थे बल्कि नगरो ओर ग्रामो के निवासी थे  ।

वहा से समरकंद होते वह यूचियो के केन्द्र बाख्तर मे पंहुचा । चाडः  - क्यान ने यूचियो को बहुत समझाने की कोशिश करी कि चीनी सम्राट बूती ने तुम्हारी जन्म भूमि  हूणो से खाली करवा ली हे ओर चीनी समाज सम्राट चाहते हे कि यूची लोटकर अपनी भूमि सम्हाल ले । लेकिन यूची भली प्रकार जानते थे कि घुमन्तु हूणो को जीतना वेसा ही अचिरस्थायी हे जैसा डेला फेकने पर काई का फटना ।

 यूची बाख्तर के विशाल राज्य के स्वामी हो आनन्द से जीवन बिता रहे थे इसलिये हूणो से झगडा मोल लेने के लिये तेयार नही थे ।

चाडः - क्यान को बदख्शां , पामीर ओर सिडःक्यि।डः होकर लोटना पडा । जहा वह हूणो की पहुच से बाहर नही रह सकता था । उसे फिर उनकी कैद मे रहना पडा ओर बारह वर्ष  ( 138 - 126  ईसापूर्व ) के बाद चीन लोटने का मोका मिल सका ।

115 ईसा पूर्व मे फिर उसे वसूनो के पास भेजा गया , जो इस्सिकुल महा सरोवर के पास त्यानशान मे रहा करते थे । चीन पश्चिम जाने वाले रेशम पथ ( Silk Routes ) को सुरक्षित तोर से अपने पास रखना चाहता था  , इसलिए  चाडः  - क्यान को दूसरी बार भेजा गया था ।
उसने पार्थिया आदि दूसरे देशो मे पता लगाने के लिये अपने दूत भेजे ओर लोटकर उसने चीनी सम्राट को पश्चिमी देशो के बारे मे रिपोर्ट दी ।

" मूल रिपोर्ट प्राप्य नही हे "

लेकिन सूमा- च्याडःने  99  ईसापूर्व मे अपनी पुस्तक  " शी - की " ओर पाडःकी ने 92  ईस्वी मे  " च्यान-शान-शूकी" मे उपयोग किया हे ।

पिछली पुस्तक मे 206  ईसापूर्व  स  24  ईस्वी तक का वर्णन हे । चाडः- क्यान पश्चिम से लोटने के बाद 114   ईसापूर्व मे मर गया । उसके विवरण के जो अंश मिलते हे  , उससे बहुत सी बातो का पता चलता हे । पार्थियन लोग चर्मपत्र पर आडी लाइन मे लिखते थे । फर्गाना से पर्थिया तक शक-भाषा बोली जाती थी ।

इशी- ज्या  ( 127 - 117 ईसापूर्व )
अच्ची( 117- 107  ईसापूर्व )
चान - सी - लू  ( 107  - 104  ईसापूर्व )
शूली- हू  ( 104 - 103  ईसापूर्व )
शू-ती- हू  ( 103 - 68  ईसापूर्व )
हू-लू-हू( 68 -  87  ईसापूर्व )

यह हूणो के 5 वे  शान - यू ( राजा ) के बाद शान -यू  ( राजा )  हुये ।
 जिनका समकालीन हान- वंशी सम्राट बूती ( 140  - 86 ईसापूर्व ) था  ।

 चिन वंश ने हूणो की शक्ति को तोडने के लिये जो प्रयत्न किया था  , समाप्ति  हान  वंश ने की थी ।

सन्दर्भ : 

1 . A Thousand Years of  Tatars : E.  H . Parker, Shanghai - 1895
2. हुन्नू इ गुन्नी : क. इनस्त्रान्त्सेफ,  लेनिनग्राद - 1926
3. Histoire des Huns : Desqugue - Paris : 1756
4. Excavation in Northan Mangolia - C.  Trever - Leiningrad

कुषाण सेनापति शूरवीर शालिवाहन - भाटी वंश के आदिपूर्वज | Origin History of Bhati Dynasty

कुषाण सेनापति शूरवीर शालिवाहन - भाटी वंश के आदिपूर्वज

शूरवीर शालीवाहन | वीर गुर्जर | कुषाण गुर्जर साम्राज्य | कुषाण सेनापति | भारत का इतिहास | भाटी वंश

'शूरवीर शालिवाहन' गुर्जर कसाणा सम्राट कनिष्क महान के महान सेनापति थे, जिन्होने गुर्जर कसाणा साम्राज्य के लिये,सम्राट कनिष्क के साथ मिलकर शक्तिशाली शको (क्षत्रप व महाक्षत्रप)  को हराकर कसाणा गुर्जर साम्राज्य के अधीन किया था.शको को पराजित करने पर सम्राट कनिष्क महान ने अपना राज्याभिषेक किया व शक संवत आरम्भ किया,शालिवाहन के पराक्रम के कारण इसे शालिवाहन शक संवत भी कहा जाता है। अफगानिस्तान व स्वात घाटी में शूरवीर शालिवाहन के वंशज आज भी पाये जाते है. आगे चलकर शूरवीर शालिवाहन के वंशज रिसाल गुर्जर ने पंजाब में रिसालकोट बसाया व कसाणो के अधीन राज किया,बहुत बाद में गुर्जरो के हूण राजवंश के सम्राट व तंवर(तोमर,तुअर) गोत्र के प्रवर्तक गुर्जर सम्राट तोमराण हूण ने स्यालकोट (रिसालकोट) को राजधानी बनाकर भारतीय उपमहादीप के बडे हिस्से पर शासन किया। आगे चलकर इसी वंश में भाटीराव के नाम पर इन्हें भाटी कहा जाने लगा।
कुषाण सेनापति शूरवीर शालिवाहन - भाटी वंश के आदिपूर्वज