सोमवार, 5 दिसंबर 2016

गुर्जर तथा अरब महासंघर्ष (भाग 1) | Gurjar Vs Arab war (Part 1) History

गुर्जर तथा अरब महासंघर्ष (भाग 1) | Gurjar Vs Arab war (Part 1)

Gurjar Vs Arab War History | Part 1 | Arab Invasion in India | Battle of Rajasthan | Gujarat | Punjab | Kathiyavad | India | Arab War | Author : Malkiat Singh Jinderh



गुर्जर तथा अरब महासंघर्ष (भाग 1) | Gurjar Vs Arab war

कुछ लोग अरब ओर गुर्जरो के बीच हुए संघर्ष को Battle Of Rajasthan भी कहते हैं। लेकिन यह संघर्ष इक बड़े युद्ध का इक हिस्सा था जो राजस्थान के अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, काठियावाड़ ओर पंजाब में भी लड़ा गया। इस संघर्ष को ठीक ढंग से समझने के लिए पहले हमें इसकी पृष्ठभूमि को समझना होगा।

पृष्ठभूमि (भाग 1) :-

712 AD में मोहम्मद बेन क़ासिम के सिंध पर हमले से पहले अरब दुनिया की इक बड़ी ताकत बन चुके थे। उत्तरी अफ्रीका के सभी देश, यूरोप में स्पेन तक, मध्य एशिया में त्रासोक्सीयाना तक ओर पूर्व में मकरान (बलूचिस्तान) खलीफा के झंडे के नीचे आ चुके थे। खलीफा की सत्ता फैलाने में मवालियों (Newly Convert Muslims) का भी अहम किरदार था जो ईरान ओर तुर्की आदि के गैर अरब लोग थे। इस प्रकार भारत पर अरब आक्रमण कोई छोटा-मोटा वाक्या नही था बल्कि उस वक़्त की सबसे महान विश्वशक्ति का आक्रमण था जिससे गुर्जरो को उलझना पड़ा। क़ासिम के वक़्त शक्ति से स्त्रोत मिश्र, इराक़, ईरान, तुर्की आदि विकसित सैनिक शक्तियों से प्रपौत थे जबकि गुर्जर उस वक़्त महज इक छोटे से इलाके में निहित कबीलाई संघ मात्र था।
बलूचिस्तान ओर सिंध का इलाक़ा ईरान की सस्सानि राजसत्ता के अधीन था ओर हूणों के साथ संघर्ष में कमजोर हो चुकी सस्सानि राजसत्ता इन इलाक़ो को ठीक ढंग से अपने अधिकार में ना रख सकी ओर यहां के मुकामी जागीरदार जिनको कस्बों ओर गांव का मुखिया बनाया गया था ओर जो अधिकतर ईरानी मूल के ही थे अमली तौर पर अपनी सत्ता स्थापित करली थी। इनको राई कहा जाता था। 416 AD में राइयों ने अपने इक प्रमुख राई देवा जी को अपना राजा घोषित कर दिया था। सस्सानि लगातार इस इलाके पर दोबारा अपनी सत्ता कायम करने के लिए कोशिश करते रहे। ऐसी ही इक कोशिश में राजा मेहरसेन II ईरान के निमरोज़ से आई इक सेना का मुक़ाबला करते हुए मारा गया। राई वंश का आखरी राजा राई सहसी II उसके इक ब्राह्मण मंत्री चच द्वारा रची इक साजिस में कत्ल कर दिया गया था। चच ओर राई सहसी की रानी सुहनदि में गुप्त ढंग से इश्क़बाजी चल रही थी। 

राई सहसी की हत्या के बाद चच ने सुहनदि से शादी रचाली ओर खुदको (632 AD) राजा घोसित कर दिया। गुस्सा खाकर चित्तोड़ का राजा महर्थ चच से अपने जीजा का राज बापिस लेने ओर अपनी बहन सुहनदि को सज़ा देने सिंध पर आक्रमण करने आया पर लड़ाई में मारा गया। चच के बाद उसका बेटा चंद्र राजा बना ओर उसके बाद चंद्र का बेटा दाहिर राजा बना।
642 AD में नेहवंद की जंग में अरब सेना ने सस्सानि राजा Yazirgerd III को मुकम्मल रूप में हरा दिया ओर Yazid मेर्व में अपने इक गवर्नर Muhayeh के पास भाग गया। Muhayeh ने Yazid के रोज़ाना महंगी मांगो से तंग आकर उसके खिलाफ विद्रोह कर दिया ओर बडगीस के नेज़ाकि हूणों की मदद से yazid को हरा दिया। Yazid ने भागकर इन चक्की वाले (Miller) की चक्की में पनाह ली पर चक्की वाले ने Yazid की दौलत के लालच में Yazid की हत्या करदि ओर इस तरह ईरान में अरबों की सत्ता को चुनौती देने वाला कोई नही बचा।
भारत प्रवेश करने के लिए अरबों को अफ़ग़ानिस्तान से होकर गुजरना था जो उस वक़्त सभ्यता के हिसाब से भारत का ही अंग माना जाता था ओर अरबों के 'अल हिन्द' संकल्पना के अंतर्गत ही आता था। इसके साथ ही मकरान पर कब्जा निश्चित करने के लिए साथ लगते ज़ाबुलिस्तान ओर ज़मिनद्वार (Helmand) पर भी कब्जा करना जरूरी था। ज़ाबुलिस्तान ओर ज़मीनद्वार पर उस वक़्त ज़ुनबिल हेप्थालो (हूण) का राज था जो भारतीय गुर्जरो के ही भाई बंध थे ओर ज़ाबुलिस्तान में ही पीछे रह रहे थे। यह लोग सूर्य उपासक थे जिसे वो जून कहते थे। जून यानी सूरज का इक बड़ा मंदिर साकावंद (ज़ाबुलिस्तान में) था जहां साल दर साल मेला लगता था ओर जो हेप्थाल इस मेले के दिन सूर्य पूजा करने सकवंद के मंदिर जाते थे उनको ज़ुनबिल कहा जाता था। अरब लोग इनको ज़िब्लिस कहते थे। ज़ाबुलिस्तान पर कब्जा करने की गर्ज से सुहैल बिन अब्दी के अधीन अरब सेना ने 643 AD में ज़ुनबिलों पर हमला किया। ज़ुनबिलो को पहली बार अरब सेना की ताकत का अंदाज़ा हुआ ओर इस जंग में उनको पीछे हटना पड़ा लेकिन आगे के लिए वो चौकन्ने हो गए। अगले ही साल 644 AD में खलीफा राशिदुन के इशारे पर अरब सेना ने मकरान के तटवर्ति इलाके पर आक्रमण किया ओर रासिल के स्थान पर भारतीय सेना को पराजित किया। मकरान पर अब भारतीयों का कोई दावा नही रह गया था। 652 AD में अहनाफ इब्न कैस ने हेरात पर हमला करके वहां हारा हूणों को पराजित कर दिया। यह हमला ज़ुनबिलों को उत्तर पश्चिम की तरफ से घेरने के लिए किया गया था।
661 AD में अरब जनरलों सिनन इब्न सलमा ने मकरान के चगाई इलाके को अपने अधीन किया। 672 AD में अरब जनरल राशिद इब्न अम्र ने मशकेय ओर 681 AD में मुंजिर इब्न जरूद अल अबादि ने किक्कान, बुकान को अधीन करके लगभग 673 AD तक मकरान सिंध पर हमला करने के लिए आधार शिविर बन चुके थे, सिर्फ ज़ुनबिलो से निपटना बाकी था।
ज़ाबुलिस्तान पर अधिकार करने के लिए अरब सेना ने 668, 672 ओर 673 AD में तीन बार कोशिश की लेकिन ज़ुनबिल मजबूती से उनका सामना करते रहे ओर तीनो बात अरब सेना को अपना हर्जा खर्चा लेकर पीछे हटना पड़ा। कुफा ओर बसरा का गवर्नर अल हज्जाज इब्न यूसफ अल हकम इब्न अकील अल तकाफि (अल हज्जाज) ज़बुलिस्तान पर अधिकार करने के लिए बहुत तत्पर था। 681 AD में उसने यज़ीद बिन सलाम के अधीन सेना भेजी पर जंजाह के स्थान पर ज़ुनबिल हूणों ने इस सेना को ना सिर्फ हरा दिया बल्कि ऐसा घेरा की अरबों को ज़ुनबिलो को 5 लाख दिरहम देकर अपने फौजियों की जान माल की हिफाज़त करनी पडी। ज़ुनबिलो ने 685 में सिस्तान पर धावा बोल दिया पर कामयाब नही हुए। अरब सेना ने इक बार फिर 693 में ज़बुलिस्तान पर हमला किया लेकिन इस बार फिर हरा दी गई।
ज़ुनबिलों ने दर्रा बोलान से होकर मकरान में अरब ठिकानों पर धावे बोलने शुरू किये तो खतरे को भांप कर अल हज्जाज ने उबैदुल्ला इब्न बकरा नामी सिपाहसालार को 698 AD में 20 हजार की फौज देकर ज़ुनबिलो पर हमला करने भेजा। यह सारी फौज कुफा ओर बसरा से भेजी गयी थी क्यूंकि इस फौज की बहादुरी के डंके दूर-दूर तक बजते थे। उधर ज़ुनबिल पीछे हटकर काबुल शाही (जो हेप्थाल ही थे, इनको तुर्की शाही भी कहा गया है) फौज से मिल गयी ओर उबैदुल्लाह की फौज को आगे बढ़ने दिया। जैसे ही अरब सेना काबुल के पास पहुंची तो ज़ुनबिल ओर काबुलशाही फौज ने ऐसा हमला किया की कुफा ओर बसरा की फौज के 20 हजार में से 15 हजार फौजी मौत के घाट उतार दिये गए। इस्लामी लश्कर की यह शिकस्त खलीफा ओर गवर्नर अल हज्जाज के लिए नागवार थी। अल हज्जाज के लिए नागवार इसलिए भी थी की अभी अभी ही उसको सिस्तान ओर ख्बारीजम का गवर्नर भी बना दिया गया था ओर यह हर उसके रुतबे ओर चोट थी। अगली ही बार 700 AD में अब्दुर रहमान इब्न मोहम्मद अल असथ को फिर से कुफा ओर बसरा से 20 हजार की फौज देकर ज़ुनबिलो के खिलाफ भेजा। इस बार फौजियों को असथ ने अपनी मर्जी से चुना था। अल असथ ज़ुनबिलों को हर हालात में हरा देने मि डींगे हांक कर आया था। बिलाशक वो इक काबिल जनरल था। ज़बुलिस्तान आकर उसने कुछ कामयाबियां हासिल कीं, पर ज़ुनबिलो को जीतना इतना आसान ना देखकर उसने आस पास के इलाक़ो में अपनी किलेबंदी शुरू की ओर गर्मी का मौसम आने का इन्तेजार करने लगा। इस देरी से अल हज्जाज परेशान हो गया ओर उसने रुकके में अल असथ ओर दूसरे सिपाहसालारों को बहुत बुरा भला कहा ओर उनकी शान के खिलाफ शब्द इस्तेमाल किये। अल असथ इराक़ के मक़बूल खानदान असथ का सदस्य था जो इक गरीब पठार त्रश ओर रुतबे में छोटे खानदान से गवर्नर के ओहदे पर पहुंचे अल हज्जाज से अपनी तोहीन बर्दास्त ना कर सका ओर उसने विद्रोह कर दिया ओर पहले मकरान को अपने अधीन लिया फिर अपने लश्कर के साथ बसरा रवाना हुआ जहां उसने अल हज्जाज की सेना को हराकर बसरा पर कब्जा किया ओर कुफा की तरफ बढ़ने लगा। ज़ुनबिलों ने अल असथ की मदद की ओर सिस्तन पर अपना दावा जताया। खलीफा असथ से नाराज था क्योंकि उसने सरकारी  अधिकारो के खिलाफ गद्दारी की थी, खलीफा की मदद से अल हज्जाज ने सीरिया से सेना बुलाई ओर कुफा की जंग में 704 AD में असथ को हरा दिया।असथ सिस्तन की तरफ भागा ओर ज़ुनबिलो से पनाह मांगी। अल हज्जाज पहले ही ज़ुनबिलो से 7 साल तक की जंगबन्दी का समझोता कर चुका था, ज़ुनबिलो ने असथ का क़तल कर दिया। (कुछ इतिहासकार बताते है की असथ ने खुदखुशी करली थी)। इस प्रकार कुछ देर तक भारत के दरवाजों पर अरब आक्रमण रुक गया था। ज़ुनबिलों ओर काबुल शाही हप्थालो की शक्ति के कारण अरब सेना भारतीय प्रवेश द्वार दर्रा खैबर, दर्रा बोलान ओर दर्रा गोमल तक नही पहुँच पा रही थी, उनके पास बलूचिस्तान, सिंध ओर राजस्थान के मुरुथल ओर दुर्गम इलाके से ही भारत प्रवेश का रह गया था। मुहम्मद बिन क़ासिम के बाद भी ज़ुनबिलो ने 728, 769 ओर 785 में अरब सेना के हमलों को कामयाब नही होने दिया बल्कि 728 के हमले में अरब सेना इक बार फिरसे बुरी तरह हार गई थी। ज़ुनबिल हूणों को 865 AD में सफरीद जनरल याक़ूब ने काबू किया तब तक ज़ुनबिलों के चारो तरफ अरब अपनी धाक जमा चुके थे ओर ज़ुनबिल अकेले ही चारो तरफ से घिरे हुए थे। ज़ुनबिलो को बड़ा धक्का उस वक़्त लगा था जब उनके अपने भाई बंध हप्थाल नेज़ाकि हूण अरब सेना की सहायता करने की अपनी गलत नीतियों के कारण अरबों के आगे धरा शाही हो गए थे। नेज़ाकि हूण (जिनका नाम उनके इक राजा नेज़ाक के नाम पर पड़ा) उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान क्व बदगीस में हुकूमत कर रहे थे। ज़ुनबिलो की तरह नेज़ाकि हूण भी काबू नही आ रहे थे। आखिर कुतैबा ने नेज़ाकियों से समझोता कर लिया ओर नेज़ाकि अरब सेना की ट्रांसोक्सीयाना में हुई लड़ाइयों में उनसे कंधे से कंधे मिलाकर  लड़ने लगे हालांकि वो खुद मुस्लिम नही हुए थे। आखिर जब ट्रांसोक्सीयाना में अरब नेज़ाकियों की मदद से जीत कर बहुत मजबूत हो गए तो उन्होंने दूसरी कोमों की मदद से नेज़ाकियों को शिकस्त दे दि ओर एक जंग में नेज़ाकि राजा मारा गया।

जब अरब सेना ज़ुनबिलो से निपटने में लगी हुई थी तो अरब सागर में सेरान्द्वीप (श्रीलंका) से ईरान की खाड़ी तक अरब के व्यापारिक समुंद्री जहाँजो को लुटे जाने की खबरें खलीफा के पास आ रही थीं। अरबों के जहाँजो को लूटने वाले मेड़ जाती के लोग थे जो देवल, कच्छ और काठियावाड़ के अपने तीन केंद्रों से इन कार्यवाहियों को अंजाम दे रहे थे। चचनामा में देवल के मेड़ों को नागमराह कहा गया। विंक (Al Hind - The Making Of Indo Islamic World) ने लिखा है की मेड़ लोग साक (सीथियन) जाती के लोग थे जो अरबों के जहांजो को लूटने से पहले सस्सानियों के जहाँजों को लूटा करते थे। और यह लूटमार सेरेंद्वीप से लेकर इराक में दरिया दजला (टाइग्रिस) के डेलटे तक कहीं भी हो सकती थी उस वक़्त अरब मेड़ों को अपना सहयोगी मानते थे क्यूंकि वो भी उस वक़्त सस्सानियों से ईरान छीन लेने की कोशिश में लगे हुए थे। बात तब ज्यादा बढ़ गयी जब सेरेंद्वीप के राजा की तरफ से खलीफा अल वालिद के लिए कीमती उपहार लेकर जा रहा इक अरब जहाज नागमराह लोगों ने लूट लिया। इस जहाज में सेरेंद्वीप के कुछ नए बने मुसलमान अपनी बीवियों के साथ मक्का और मदीना की जियारत के लिए भी जा रहे थे जिनको बंधक बना लिया गया था। जहाज को बचाने के लिए कई अबेसीनियन (Modern Ethopia & Eriteria) हब्शी गुलाम मारे गए थे। जहाज को देवल की बंदरगाह पर लाया गया और बंधकों को राजा दाहिर की तरफ से देवल के गवर्नर प्रताप राई ने अपनी हिरासत में ले लिया। बंधकों की अदला बदली के दौरान ईक सेरेंद्वीपी औरत बच कर किसी तरह मकरान में अरब सेना के इक बेस पर पहुँच गयी और वहां से इक क़ासिद के हाथ खलीफा को ख़त लिखा जिसमें उसने बंधकों की रिहाई और जहांजो की हिफाज़त की विनती की (The Ummayyad Khaliphate By Alaxander Berzin)। खलीफा ने अल हज्जाज को कार्यवाही करने के लिए कहा। अल हज्जाज ज़ुनबिलों से निपटे बिना सिंध पर कोई फौजी अभियान भेजना नहीं चाहता था। उसने दाहिर के पास दूत भेजकर मांग की क़ि बंधकों को रिहा किया जाये। लूटेरों को सजा दी जाये और नुकसान का मुआवजा दिया जाए। दाहिर ने यह कहकर वापिस भेज दिया की लूटेरे उसकी रियाया नहीं हें ओर उनपर उसका कोई जोर नहीं है। हज्जाज जनता था की बंधक प्रताप राई के पास हैं और ये दाहिर का ही गवर्नर नियुक्त किया गया है। हज्जाज ने बहाना बनाया की अगर लुटेरे दाहिर के राज के अधीन नहीं हैं तो वो खुद उनको सजा देगा। पहले उबैदुल्लाह के नेतृत्व में और फिर बुड़ैल के अधीन जंगी बेड़ा (Naval Fleet) देवल पर हमला करने भेजा गया पर प्रताप राई ने मेडों की सहायता से दोनों बार अरबों को देवल के तट पर हरा दिया और दोनों ही बार अरब कमांडर मारे गए। अल हज्जाज ने ज़मीन के रास्ते सिंध पर हमला करने का मन बना लिया। वैसे भी उसका अफ़ग़ानिस्तान में पैर मजबूत करने के बाद भारत प्रवेश करने का इरादा था पर अब यह पहल की बात हो गई थी।
इमाम अद् दिन मुहम्मद इब्न क़ासिम अथ तक़ाफ़ि का जन्म 672 AD को अल हज्जाज के भाई क़ासिम बेन यूसफ के घर तैफ (अब सऊदी अरब में) हुआ था। अल हज्जाज ने अपनी बेटी ज़ुबैदा की शादी उसी से की थी, यानि वो अल हज्जाज का भतीजा था और दामाद भी। उसकी फौजी ट्रेनिंग अल हज्जाज के लश्कर में ही हुई थी। अल हज्जाज ने सिंध को फतह करने का काम उसी को सौंपा। क़ासिम उस वक़्त 17 साल की उम्र का था जब वो ईरान में शिराज के उस अरब लश्कर का 710 AD में कमाण्डर जिसे सिंध की तरफ रवाना होना था। (Al Hajjaj To Qasim By Deroyl)

जब मुहम्मद बेन क़ासिम शिराज से मकरान के लिए रवाना हुआ तो उसकी फौज में 6 हजार सीरियन घुड़सवार थे। ईरान के मवालियों की ओर अबीसीनियन और सूडान के हब्शियों की पूरी पलटनें भी उसके साथ थीं। मकरान में दाखिल होते ही मकरान के गवर्नर ने 6 हजार रुखसवार (Camel Core) उसके साथ करदी और देवल को समुन्द्र की तरफ से घेरने के लिए इक जंगी बेड़ा भी रवाना कर दिया इस जंगी बेडे के पास 6 हजार गुलेलें भी थीं जो भारी भरकम पत्थरों को फेंक सकती थी। स्पष्ट था की जमीनी ओर समुन्द्री दोनों रास्तों से देवल पर हमला होगा। मकरान (बलूचिस्तान) में क़ासिम ने फंनज़्बुर ओर अरमान बेला (लास बेला) अरब सिपहसालारों को शक्ति से युद्ध में अरब सेना का साथ देने के लिए मजबूर किया क्यूंकि यह दोनों मकरान के गवर्नर से नाराज चल रहे थे ओर मनमर्जीयाँ कर रहे थे। 712 AD में क़ासिम ने अपनी सेना के साथ मकरान से सिंध में प्रवेश किया। उसके सिंध में दाखिल होते ही देवल की बंदरगाह को घेर कर खड़े हुए जंगी बेडे ने गुलेलें धरती पर उतार दी ओर उनको पानी के पास जंगी जहाँजों की सरपरस्ती में ऐसी जगह पर लगाया जहाँ उन पर जबाबी हमला मुमकिन नहीं था। गुलेलों से भारी भरकम पत्थर शहर पर फैंके गए। कुछ ही दिनों में देवल शहर बर्बाद कर दिया गया। शहर की आबादी शहर छोड़ कर भाग गई। प्रताप राई शहर की हिफाज़त करना मुश्किल में पाकर अपनी सेना के साथ दाहिर की राजधानी अलोर (अरोर) की तरफ कूच कर गया। बेड़े से उतरकर अरब सेना देवल में दाखिल हो गई। सबसे पहले देवल के भव्य मंदिर को जमीन पर गिरा दिया गया जो शहर की गतिविधियों का मुख्या केंद्र था। आस पास के मेड़ और दूसरे जाट जो अरब जहाँजो की लूट-पाट में शामिल थे सज़ा से बचने के लिए कच्छ की तरफ भागने शुरू हो गए। क़ासिम के देवल पहुँचने से पहले ही देवल फतह कर लिया गया था। देवल से क़ासिम उत्तर में नारून और सदुसन (सहवान) की तरफ चल दिया। यह जाटों का इलाक़ा था। यहाँ क़ासिम का कोई विरोध नहीं हुआ। देवल सिंध नदी के पूर्वी किनारे पर था जबकि नारून पश्चिमी किनारे पर। (10वीं सदी ईस्वीं में इक जबर्दस्त भूचाल के कारण सिंध नदी द्वारा रास्ता बदल लिया जाने पर नरून आज तक नदी के पूर्वी किनारे पर है) नारून को आधार बनाकर अरब सेना ने काका, कोलक, बाझरा, ओर सिबिस्तन को अपने अधीन किया। सिबिस्तन के सिबिया गोत के जाट अरबों के समर्थक बन गए। राजा दाहिर अलोर के पास रोहड़ी नाम की जगह (सिंध नदी के पूर्वी तट पर) पर अरब सेना का मुक़ाबला करने के लिए मोर्चाबंदी किए हुए खड़ा था। नदी के इस पार या उस पार जाने के लिए नदी के बीचों बीच बेट नाम के इक जज़ीरे पर अधिकार करना जरूरी था। बेत पर मोरेया बसाया नाम के इक जाट शासक का अधिकार था जिसने सहज ही क़ासिम से समझोता कर लिया ओर नदी पार करने के हित अरब सेना को बेत का इस्तेमाल करने का ना सिर्फ अधिकार दे दिया बल्कि अपने अधीन जाटों को दाहिर के खिलाफ लड़ने के लिए अरब सेना के साथ भी कर दिया (Wink; Al Hind)। जाटों और मल्लाहों की सहायता से क़ासिम की पूरी फौज ने नदी पार की और रोहड़ी पहुँच गया। क़ासिम की सेना के नदी पार करने की खबर सुनते ही अलोर के इलाके के गुर्जरो और मेड़ो ने उत्पाद मचा दिया। इनकी लूट मार की वजह से रास्ते बंद हो गए और इस अराजकता का नुकसान अरबों से ज्यादा दाहिर को ही हो रहा था। जाट दो गुटों में बँट गए थे। नदी के पश्चिम की तरफ के जाट क़ासिम के साथ थे जबकि पूर्व की तरफ के जाट दाहिर के साथ मैदानी जंग में डटे हुए थे। भट्टा (जैसलमेर और बीकानेर का इलाक़ा) राजा दाहिर से अपना पुराना बदला लेने के लिए सेना समेत क़ासिम की सहायता कर रहा था। दाहिर की बहन की शादी भट्टा के राजा से तय की गई थी। शादी के वक़्त जब दाहिर ने देखा की इतना इलाक़ा भट्टा के राजा को दहेज़ में देना पड़ेगा जिससे उसका इलाक़ा दाहिर के अधीन इलाके से भी बड़ा हो जायगा तो ऐन मौके पर उसने अपनी बहन का डोला रोक दिया और अपनी बहन से खुद शादी करली (चचनामा)। इससे भट्टा का राजा बहुत नाराज था। अरब सेना के पास दुनिया में सबसे बढ़िया नस्ल के अरबी घोड़े थे जबकि दाहिर की सेना मुख्या तौर पर हाथियों पर आधारित थी। भारत में अरबी नस्ल के घोड़ो से कुछ ही कम बढ़िया नस्ल के तुर्की घोड़े सिर्फ गुर्जरों के पास थे। अरबों के तीरंदाजों के पास मंगोली कमानें थी जो तेज रफ़्तार से दूर तक बाण फेंक सकती थी। ऐसे तीर कमान भारत में सिर्फ गुर्जरों के पास थे और किसीके पास नही थे। दाहिर और भीनमाल के गुर्जरो में आपसी ऐसा कोई तालमेल नहीं था जिससे दाहिर फायदा उठा सकता हालांकि दोनों राज्यो की सरहदें आपस में टकराती थीं। गुलेलें भारत में पहली दफा अरब लेकर आये थे, भारतियों के किसी भी राज्य के पास यह नही थी। उस वक़्त दुनिया पर अरबों की जीत की इक धारणा बनी हुई थी ओर लोगों को यकीन था की अरब ही जीत प्राप्त करेंगे जिससे युद्ध के वक़्त अरबों के विरोधी राज्यो के राज्याधिकारी और व्यापारी वर्ग गुप्त तौर पर अरबों से सांठ गाँठ करते थे और आम जनता अरबों के जीत जाने की हालात में आने वाली किसी विप्ता के डर से अपने शासकों के प्रति उदासीन हो जाती थीं।

बाकी अगले भाग में पृष्ठभूमि (भाग 2) मे ..........



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